Tuesday, 25 November 2014

क्या हम अपनी जिम्मेदारी से भाग रहे हैं?


क्या चाहता है मीडिया और विपक्ष /
राकेश माथुर//
(मुंबई हमले 26/11 के तत्काल बाद लिखा मेरा एक लेख, जिसे मैने सभी प्रमुख संपादकों को भेजा था (पढ़ने के लिए छपने के लिए नहीं) लेकिन किसी ने जवाब देना मुनासिब नहीं समझा..
पता नहीं आज भी यह प्रासंगिक है या नहीं... अब आप बताएं)

मुंबई पर आतंकी हमले ने लगता है हर किसी को अपनी रोटी सेंकने और देश का मनोबल तोडऩे का लाइसेंस दे दिया है। सारे टीवी न्यूज चैनलों ने आतंकियों से लोहा लेने गए कमांडो को लाल घेरे में दिखा दिखा कर बताया कि हमारे जांबाज कमांडो यहां छिपे हैं आतंकियों देख लो हम तुम्हें दिखा रहे हैं, इन्हें निशाना बना लो। ऐसे समय में उन्हें शायद अपनी निजी बहादुरी पर गर्व था कि हमें सब कुछ दिखाने का लाइसेंस हासिल है। क्या एसे पत्रकारों को गोली से नहीं उड़ा देना चाहिए जो देश और देशवासियों की जान से खिलवाड़ कर रहे हैं? क्या हम प्रतिदिन केंद्र सरकार या गृहमंत्रालय को नाकाम, नाकारा, बेकार किसी काम की नहीं बता कर पूरी दुनिया को यह संदेश नहीं दे रहे कि जिस सरकार को हमारे देशवासियों ने चुना वह नाकारा है। क्या मीडिया चाहता है कि वर्तमान केंद्र सरकार के सभी लोगों को फांसी दे दी जाए क्योंकि वह देश पर आतंकी हमले रोकने में विफल रही? मान लीजिए ऐसा हो गया जो दुनिया में कहीं नहीं हुआ, फिर उसके बाद क्या गारंटी है कि आतंकी हमले रुक जाएंगे?

हर चुनावी सभा में विपक्ष के नेता लालकृष्ण आडवाणी सहित भाजपा नेता कह रहे हैं कि हम सत्ता में आते ही आतंकवाद खत्म कर देंगे? क्या उनके पास जादू की छड़ी है या मान लिया जाए कि वे ही हमले करवा रहे हैं जिन्हें वे सत्ता पाते ही बंद करवा देंगे। अगर ऐसा है तो जयपुर धमाके, अहमदाबाद विस्फोट और बेंगलूर धामके क्या वहां की भाजपा सरकारों ने जानबूझकर होने दिए थे ताकि चुनाव में किसी एक पार्टी विशेष को निशाना बनाकर वोट बटोरे जा सकें? क्या वहां के मुख्यमंत्रियों का दायित्व नहीं था कि वे आतंकी हमले रोकें? किसी भी मीडिया चैनल ने तब क्यों नहीं किसी मुख्यमंत्री को दोषी ठहराया और अब क्यों महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री व उपमुख्यमंत्री को दोषी ठहराया जा रहा है? क्या यह जनता का सामूहिक ब्रेनवाश नहीं है? क्यों मुंबई हमलों के बाद प्रधानमंत्री द्वारा बुलाई गई सर्वदलीय बैठक में खुद को प्रधानमंत्री इन वेटिंग कहलाने वाले आडवाणी शामिल नहीं हुए? इसलिए कि इन्हें वोट मांगने के लिए राजस्थान की सभाओं में जाना था? फिर वे क्यों कहते हैं कि कांग्रेस वोट बैंक की राजनीति करती है? क्या कांग्रेस राजनीति में आलू छीलने आई है। कोई भी राजनीतिक दल राजनीति में इसीलिए है कि उसे राजनीति करनी है। यह बात हर सभा में या मीडिया के हर पन्ने पर या टीवी पर बता बता कर क्या आप खुद बेवकूफ नहीं बन रहे?

क्यों सुरक्षा एजेंसियों के मना करने के बावजूद आडवाणी, जसवंत सिंह व मोदी ताज में उस समय गए जब वहां आतंकियों से निपटने की मुहिम चल रही थी? क्या उन्हें डर था कि आतंकियों में से कोई उनका अपना न हो? या वे यह पता  करने गए थे कि मालेगांव धमाकों के बहाने कथित हिंदू संगठनों पर शिकंजा कसने वाले एटीएस चीफ हेमंत करकरे कहीं जिंदा तो नहीं बच गए। ताज में मारे गए आतंकियों के हाथ में मौली (हिंदुओं द्वारा पूजा के समय कलाई पर बांधा जाने वाला धागा) तथा माथे पर तिलक था? कहीं इन दोनों नेताओं को यह डर तो नहीं था कि वे किसी हिंदू संगठन के न निकल आएं। वैसे, बाद में पकड़े गए आतंकी ने बता दिया कि रोली-मौली उन्होंने भारतीय नौसेना से बचने के लिए काम में लिए थे। तो क्या नौसेना के जवान हिंदू नजर आने वाले आतंकियों को छोड़ देते हैं?

शिवराज पाटील ने दिन में तीन बार कपड़े बदलें या दस बार? इससे आपकी सेहत पर क्या फर्क पड़ता है? आप यह साबित करें कि उन्होंने यह काम नहीं किया इसलिए आतंकी देश में घुसे? वे कह नहीं सकते क्योंकि शिवराज पाटील आधी रात को उस विमान में थे जिससे कमांडो दल मुंबई गया था। क्या किसी अखबार या टीवी चैनल ने यह खबर दिखाने या छापने की हिम्मत की कि शिवराज पाटील सुबह कमांडो दल के साथ मुंबई में थे। नहीं तो क्यो?
संसद की बैठकों, उचित मंचों, सर्वदलीय सभाओं से तो विपक्ष के ये नेता नदारद रहते हैं और सडक़ पर या टीवी पर जनता के सामने वोट मांगने के लिए जो मन में आता है कहते रहते हैं? क्या संसद पर हमले के बाद तत्कालीन गृहमंत्री (लालकृष्ण आडवाणी) ने नैतिकता के नाम पर इस्तीफा दिया था? क्या कंधार विमान अपहरण के समय तीन आतंकियों और फिरौती की मोटी रकम को कंधार छोडक़र आने के बाद तत्कालीन केंद्रीय मंत्री जसवंत सिंह को शर्म आई थी? क्या उन्होंने नैतिकता के नाम पर इस्तीफा दिया था?
क्या अफजल गुरु को फांसी देने से हर समस्या का हल निकल आएगा? क्या वही यह सब आतंकी हमले करवा रहा है? क्या हमारे देशवासी जानबूझकर अपने ऊपर हमले होने दे रहे हैं? क्या सरकारों के पास कोई जादुई चिराग है जो हर बात पर हम सरकारों को कोसते हैं, खासकर जब वह गैर भाजपाई हो? क्या हमने कभी अपने गिरहबां में झांक कर देखा? क्या हमने सोचा कि मीडिया और नेता मिलकर जनता को कमजोर बना रहे हैं। क्या भारत सरकार को कमजोर बता कर हम किसी महाशक्ति को हमले का न्योता नहीं दे रहे? क्या ऐसा ही कुछ बाबर के भारत पर आक्रमण और अंग्रेजों द्वारा भारत पर कब्जे के समय नहीं हुआ था? क्या हम फिर गुलाम बनना चाहते हैं?

आज अमिताभ बच्चन कहते हैं प्रशासन से उनका भरोसा उठ गया? शायद वे समझते ही नहीं कि प्रशासन कहते किसे हैं? इतने दिन तक जो वे चैन की नींद सोते रहे, उग्र प्रशंसकों से बचते रहे, घर, मकान जायदाद सुरक्षित रखे रहे, वे किसकी देन है? एक सेकंड लगा बोलने में कि प्रशासन पर भरोसा नहीं इसलिए पिस्तौल लेकर सोए? प्रशासन ने पिस्तौल छीन क्यों नहीं ली? प्रशासन को आप पर भरोसा था, लेकिन संकट के समय आप साथ देने को तैयार नहीं निकले? ऐसी कौम और ऐसे आदर्श देश को पतन नहीं बल्कि खात्मे की ओर ले जाते हैं और प्रशंसक ऐसे हैं जिन्होंने इनके मंदिर बनाकर देवता समझ रखा है क्योंकि पैसे की खातिर इन्होंने फिल्मों कुछ जोरदार डायलॉग बोल लिए जो किसी और के लिखे हुए थे। उन्हें कहना चाहिए था कि संकट के समय हम देश के साथ हैं। फिर देखते? या खामोश ही रहते, मुंह तो बंद रख सकते थे। बहुत से लोग नहीं बोले, उनसे किसी को कोई परेशानी नहीं। लता मंगेशकर ने कह दिया कि वे तीन दिन में 300 बार रोईं, क्या वे गिन रही थीं कि रोना कितनी बार आया। हमने तो जब देखा कि नरीमन हाउस की आया दो साल के इजरायली बच्चे को उठाकर सुरक्षित जगह पर भाग गई, हमें गर्व हुआ कि ऐसे लोग भी हैं हमारे देश में। बाद में अफसोस भी हुआ कि उस बच्चे के माता-पिता को वह नहीं बचा सकी। क्या किसी ने उस आया की बहादुरी की चर्चा तक की?
ज्यादातर अखबार, टीवी चैनल ऐसी टिप्पणियां कर रहे हैं मानो एक आतंकी हमले से पूरी दुनिया खत्म हो गई। अब कुछ करने को बचा ही नहीं। क्या प्रथम विश्व युद्ध, द्वितीय विश्वयुद्ध, हिरोशिमा-नागासाकी पर परमाणु बम विस्फोट, भारत में हुई सैकड़ों लड़ाइयों (कुरुक्षेत्र, राम-रावण युद्ध सहित) के बाद भी दुनिया चल नहीं रही है या दिख नहीं रही है?
अमेरिका पर पहली बार ट्विन टावर पर हमला हुआ? उससे अमेरिका उबर गया। हमारे तथाकथित नेता कह रहे हैं अमेरिकी गुप्तचर एजेंसियों से सीखना चाहिए था? वे यह भूल जाते हैं कि उन्हीं गुप्तचर एजेंसियों की चूक थी जो आतंकी उन्हीं के देश में पढ़ते हुए पायलट प्रशिक्षण लेते रहे, एक साथ पांच विमानों का यात्रियों सहित अपहरण किया और देश की सबसे बड़ी दो इमारतों से टकरा दिया। ऐसी नाकारा संस्थाओं से हम क्या सबक लें? या सिर्फ इसलिए सीखें कि वे डॉलर वाले देश की हैं? आखिर मुंबई हमलों की जांच के लिए एफबीआई की टीम क्यों आई? क्योंकि उनमें मरने वाले छह अमेरिकी भी थे? अमेरिका को भारतीय जांच पर भरोसा नहीं? इसके लिए फिर अचानक कांग्रेस सरकार को दोष देने में मत जुट जाना। कंधार विमान अपहरण के समय भी वह जांच के लिए आई थी क्योंकि अपहृत विमान में एक अमेरिकी नागरिक था। उस समय महामहिम अटल बिहारी वाजपेयी का राज था जिनके खिलाफ उनका कोई मंत्री बोलने का साहस नहीं कर सकता था क्योंकि वे बुरा जल्दी मान जाते थे, हर बात पर इस्तीफे की धमकी देते थे, इस्तीफा उन्होंने कभी दिया नहीं।
चूक कांग्रेस से भी हुई, 1984 में ऑपरेशन ब्लू स्टार के दौरान सैनिक स्वर्ण मंदिर में घुस गए थे बाकायदा जूते उतार कर सिर ढक कर, क्या मिला स्वर्ण मंदिर से? भारी तादाद में गोला बारूद, अत्याधुनिक हथियार? क्या धर्मस्थल में वे होने जरूरी थे? क्यों थे वे? कांग्रेस पर आज तक उसका लांछन लगाया जाता है। उसके दो नेता इंदिरा गांधी व उनके पुत्र राजीव गांधी ने आतंकियों के हाथों जान गवांई दोनों प्रधानमंत्री थे, एक वर्तमान और एक पूर्व। ऑपरेशन ब्लू स्टार और खालिस्तान न बना पाने का बदला लेने के लिए सिख समुदाय के दो लोगों ने इंदिरा की जान ली तो श्रीलंका में लिट्टे का साथ न देने पर लिट्टे ने राजीव गांधी की जान ली।
क्या भाजपा गिना सकती है अपना कोई नेता जिसने आतंकवाद से मुकाबले में जान गवाई हो? फिर भी वह कहती है कि सत्ता मिलते ही आतंकवाद खत्म कर देगी। संसद पर हमला उसी के समय हुआ था, अजहर मसूद को उसी के मंत्री दूसरे देश तक सुरक्षित छोड़ कर आए थे। वही मसूद आज भारत में आतंक फैला रहा तो शर्म नहीं आ रही। या उससे कोई गुप्त डील हुई थी। जिस दाऊद का नाम वे लेते नहीं थकते, उसके खिलाफ पाकिस्तान को एक सबूत नहीं दे सके अपने छह-सात साल के कार्यकाल में? क्या मान लिया जाए कि वे दाऊद एंड कंपनी से मिले हुए हैं। यदि दिए तो क्या उनमें साहस नहीं था जो पाकिस्तान से दाऊद को भारत लाकर फांसी पर चढ़ा देते। या वे मानते थे मुंबई के वे विस्फोट तो कांग्रेस के समय हुए थे, हम क्यों उसके दोषियों को सजा दिलाएं। वे तो हर बार वोट दिलाने के काम आएंगे।
हम हर बात में पाकिस्तान का नाम लेते हैं? मुशर्रफ को जी भर कर कोसते रहे कि वही भारत पर हमलों की जड़ है? अब तो वह नहीं है फिर क्या हो गया? जरदारी तो सिंध के हैं, आडवाणी भी सिंध के हैं? दोनों पुराने पारिवारिक मित्र भी हैं, जरदारी के कहने पर आडवाणी बेनजीर पर लिखी एक पुस्तक के विमोचन पर जाने से ऐन वक्त पर मुकर गए थे, किताब में बेनजीर के खिलाफ कछ लिखा था। यह सब अखबारों में भी छपा। जरदारी आज पाकिस्तान के राष्ट्रपति हैं। क्या बार बार पाकिस्तान को दोष देने या हर आतंकी हमले के बाद पाकिस्तान से आर पार की लड़ाई लडऩे की चेतावनी देने वाली भाजपा फिर दोस्ती की बस लेकर कराची तो नहीं चली जाएगी? कराची में लाल कॉटेज (आडवाणी का जन्मस्थान)आज भी है।

आखिर बार बार पाकिस्तान को दोष देकर हम क्या करने वाले हैं कितनी सख्ती से निपटने वाले हैं? क्या कोई नेता बताएगा कि भारत पाकिस्तान पर कब्जा कर लेगा या वहां की सारी जनता को मार देगा ताकि कोई आतंकी पैदा ही न हो? विश्व के कई देशों के नक्शों में पूरा कश्मीर भारत के नक्शे से बाहर है कभी किसी कथित कश्मीर परस्त नेता ने यह मुद्दा कहीं उठाया? या सिर्फ जम्मू लेकर खुश रहेंगे भाजपाई नेता, जैसा छपा है कि जसवंत सिंह के समय कोई फार्मूला निकला था पाकिस्तान से बातचीत मे? क्या वाकई ऐसा कुछ था? तब क्यों नहीं सार्वजनिक किया गया वह फार्मूला? क्या शेष कश्मीर मुसलमानों का है इसलिए पाकिस्तान को बेच देना था? क्यों नहीं भाजपा का कोई नेता बताता कि आखिर पाकिस्तान के साथ किया क्या जाए? या ये लोग सिर्फ पाकिस्तान पाकिस्तान चिल्ला कर सत्ता हासिल करना चाहते हैं? क्यों नहीं कोई कांग्रेसी नेता इनसे यह सवाल पूछता? जनता तो वही करेगी जो मीडिया या राजनेता उससे करवाएंगे। खुद को वह नाकारा समझ बैठी है? लगता है रोज की रोटी वह अपनी मेहनत से नहीं इन्हीं नेताओं के दम पर खाती है? क्यों न सोचे मीडिया ने उसे ऐसा बना दिया।
अब दोनों पाटील (केंद्रीय गृहमंत्री शिवराज पाटील और महाराष्ट्र के गृहमंत्री आरआर पाटील) ने इस्तीफा दे दिया तो कह रहे हैं यह तो बहुत पहले हो जाना चाहिए था। अरे, उसे फांसी पर लटका दो, लेकिन देश पर आए संकट का क्या यही हल है? बयानबाजी और सिर्फ बयानबाजी। हिम्मत है तो तारीखों को पलटो, इस्तीफा बैकडेट में मान लो, फिर ?
क्या है कोई जवाब।
जनता को चाहिए कि वह खुद सवाल बनाए और इन कथित नेताओं से एक साथ पूछें। इसमें किसी राजनीतिक दल को छोडऩे की जरूरत नहीं है। लेकिन ध्यान रहे, देश को सुरक्षित रखने के लिए हमें एक बेहतरीन सरकार की जरूरत है, बयानबाज नेताओं की नहीं। ऐसा हो सकता है कि हमें लगे कि सरकार कुछ नहीं कर रही, लेकिन असल में वह कुछ कर रही हो। खुद ताज होटल के मालिक रतन टाटा ने अमेरिकी मीडिया के सामने माना है कि उन्हें केंद्र सरकार से आतंकी हमले की चेतावनी मिली थी (वह भी सितंबर में), उन्होंने सुरक्षा कड़ी भी की थी, लेकिन जरा सी ढील होते ही नवंबर में यह हमला हो गया। इसे क्या माना जाए? खुद हमारी चूक या सरकार की चूक?
---------------

सोचिए
क्या मीडिया भारत सरकार को नाकारा, कमजोर बताकर भारत को कमजोर और यहां के मतदाताओं को मूर्ख नहीं बता रहा है। क्या आपके घर में ताला भी सरकार लगाएगी? क्या आपको खुद चौकस नहीं रहना है? अगर आतंकी हमले के लिए महाराष्ट्र सरकार दोषी है तो राजस्थान व गुजरात में हुए आतंकी हमलों के लिए केंद्र सरकार कैसे दोषी हो गई? अगर सबके लिए केंद्र सरकार दोषी है तो राज्य सरकारों के होने का क्या मतलब है? पाकिस्तान आतंकियों को प्रशिक्षित कर रहा है यह बार बार कहने का क्या मतलब है? आप पाकिस्तान को कैसी चेतावनी देना चाहते हैं? देश के भीतर गुंडागर्दी व डरा-धमका कर काम निकलवाने वालों को क्या आप इस आतंकवाद के लिए दोषी नहीं मानते? क्या धर्म (धर्म कोई भी हो) के नाम पर सेना बनाने वाले भावी आतंकी पैदा नहीं कर रहे?

जवाब मिले तो मुझे भी बताइए
राकेश माथुर

Wednesday, 18 June 2014

तेल देखो तेल की धार देखो

तेल और धार्मिक कट्टरता के बीच पिसता इराक

 राकेश माथुर
एक पुराना मुहावरा है। पता नहीं कब और कैसे शुरू हुआ। लेकिन इराक में तेल के खेल ने उस देश को लगभग खात्मे की ओर ला दिया है। देश तो खैर कभी खत्म नहीं होते उनके नाम और शासक बदल जाते हैं। लेकिन दुनिया के दादा बनने की फिराक में जिस अमेरिका ने और तेलकूपों पर कब्जा करने की नीयत से जिस राष्ट्रपति जार्ज बुश ने इराक को झूठ बोल कर हिंसा की चपेट में फंसाया क्या वह खुद अब इस तेल की धार नहीं देख रहा होगा। इराक में अमेरिकी फौजी अभियान यह कह कर छेड़ा गया था कि सद्दाम हुसैन व्यापक संहार के हथियार बना रहे हैं जिससे पूरी दुनिया को खतरा है। उसका असल मकसद उन तेल कूपों पर कब्जा करना था जिनका सद्दाम हुसैन ने राष्ट्रीयकरण कर दिया था। सद्दाम ने कहा था कि तेल के कुएं और भंडार इराक की संपदा हैं और वह किसी दूसरे देश को उनका नियंत्रण नहीं सौंप सकता। जार्ज बुश रिपब्लिकन नेता तो हैं ही वे बड़ी तेल कंपनी के वारिस भी हैं। उस समय उनके उपराष्ट्रपति डिक चेनी की भी तेल में भारी रुचि थी। हेलिबर्टन नामक कंपनी की रुचि थी। अमेरिका की तकलीफ ये थी कि सद्दाम ने 2003 में हुए अमेरिकी हमले से बहुत पहले ही अपने तेल भंडार का राष्ट्रीयकरण कर दिया था। उसने अपने तेल पर पश्चिमी देशों के लिए ताले डाल दिए थे। अमेरिका ने कई देशों के सहयोग से इराक पर हमला कर सद्दाम हुसैन को न केवल पकड़ा बल्कि उसे फांसी पर लटका दिया। जेल में नहीं डाला। इसलिए कि बाद में पोल खुलने पर कोई सद्दाम को जेल से छुड़ा कर फिर सत्ता पर न बिठा दे।

सद्दाम को फांसी से बढ़ा झगड़ा :

इराक में अब फिर गंभीर संकट है। झगड़ा शिया सुन्नी और कुर्दों के बीच है। यहां यह समझना पड़ेगा कि सद्दाम हुसैन सुन्नी थे और इराक में बहुमत शियाओं का था। सद्दाम ने काफी हद तक दोनों को साध कर रखा। सद्दाम को फांसी की सजा तानाशाही शासन या ईरान-कुवैत से युद्ध के अपराध में नहीं बल्कि दुजैल में 148 इराकी शियाओं की हत्या के आरोप में मिली थी। अमेरिका के इराक छोड़ देने के बाद शियाओं को सत्ता मिली। इसके साथ ही वहां अराजकता का दौर तेज हो गया।
सद्दाम हुसैन के मुकदमे की सुनवाई करने वाले पहले चीफ जज रिजगर मुह मद अमीन ने सद्दाम को फांसी दिए जाने को गैर कानूनी ठहराया था। उन्होंने कहा था कि ईद अल अदहा के त्योहार के समय फांसी देने पर प्रतिबंध है, सद्दाम को अपील के लिए 30 दिन का समय भी नहीं दिया गया। अमेरिका ने कहा न्याय मिल गया, लेकिन यूरोपीय देशों ने फांसी की कड़ी आलोचना की। मिस्र के तत्कालीन राष्ट्रपति होस्नी मुबारक ने इसे शर्मनाक बताया। लीबिया में कर्नल गद्दाफी ने तीन दिन का राजकीय शोक घोषित किया। मलेशिया के प्रधानमंत्री महाथिर बिन मुह मद ने मानवता के खिलाफ बर्बर हत्या करार देते हुए बुश और ब्लेयर को हत्या का अपराधी बताया। कई देशों ने सद्दाम की फांसी पर टिप्पणी नहीं की लेकिन इराक में जल्द शांति की उ मीद जताई।
शिया नेता नूरी अल मलिकी (जो अब प्रधानमंत्री हैं) ने कहा था, जनता के नाम पर न्याय मिल गया, अपराधी सद्दाम हुसैन को फांसी हो गई। सुन्नी नेता खलफ अल उल्लायम ने सद्दाम को फांसी देना सबसे बड़ा अपराध करार दिया। कुर्द नेताओं ने फांसी को सही ठहराया, कहा सद्दाम ने 1983 और 1988 में रासायनिक गैस से दस हजार से ज्यादा कुर्दों को मरवा दिया था। इन आरोपों पर तो सद्दाम पर मुकदमा चला ही नहीं। फांसी पहले हो गई। सद्दाम की फांसी पर इराक के शियाओं ने जश्न मनाया, सुन्नियों ने दुख और कुर्दों ने अफसोस। अब तीनों अपना वर्चस्व बढ़ाने में लगे हैं।

अब क्यों घबराया अमेरिका

अमेरिका के तब के नेताओं को उ मीद थी कि सद्दाम हुसैन को पद से हटा कर अगर उनके विरोधियों का साथ दिया जाए तो इराकी तेल भंडार पर अमेरिका का नियंत्रण हो सकता है। नई सरकार ने तेल भंडारों का तेजी से निजीकरण किया। एक्सोन मोबिल और शेवरान से लेकर बीपी तक जैसी बड़ी पश्चिमी कंपनियों ने इराक में अपनी दुकानें खोल लीं। बुश के रनिंग मेट उपराष्ट्रपति डिक चेनी की कंपनी हेलिबर्टन भी शामिल थी। 30 साल में पहली बार पश्चिमी तेल कंपनियां इराक में तेल निकालने लगीं। लेकिन सबसे ज्यादा फायदा अमेरिका को नहीं बल्कि चीन को हुआ। उसने इराक से निकलने वाले आधे से ज्यादा तेल पर कब्जा किया। चीन ने वहां दो अरब डालर का निवेश किया और हजारों कर्मचारी भेज दिए। अमेरिकी रक्षा विश्लेषकों ने कहा, हम हार गए, चीन ने युद्ध में कुछ नहीं किया लेकिन सबसे ज्यादा फायदा वही उठा ले गया। चीन क्यों फायदे में है यह जानना भी जरूरी है। वह इराकी शर्तों के मुताबिक काम कर रहा है। उसे अमेरिकी कंपनियों की तरह मुंहफाड़ मुनाफा नहीं चाहिए। वह कम मुनाफे पर भी काम करने को तैयार है। अमेरिका में तो अब बुश को चीन का भेदिया तक कहा जाने लगा है जिसने चीन को लाभ पहुंचाने के लिए अमेरिकी डॉलर और सैनिकों की बरबादी की।
उस पूरे अभियान में अमेरिका के 10,000 से ज्यादा सैनिक मारे गए। आधिकारिक तौर पर 4,448। कई लाख करोड़ रुपए खर्च हुए। अमेरिकी नागरिक समझ गए कि ये तेल का खेल है जिसमें देश नहीं बल्कि केवल कुछ नेताओं का हित है। यह बात इराक के लोगों को भी समझ में आ गई। पहले उन्हें भडक़ाया गया कि सद्दाम हुसैन तानाशाह है, उसका और उसके बेटों का राज चलता है। उनमें से कुछ ने अमेरिका का साथ दिया। आखिर जयचंद हर देश काल में होते ही हैं।

अल बगदादी और अमेरिका की गलती :

फिलहाल, इराक के शहर-दर-शहर कब्जा करने वाले सुन्नी (आतंकी) संगठन आईएसआईएल (इस्लामिक स्टेट इन इराक एंड द लेवेंट) का सरगना अबू बकर अल बगदादी है। अनपढ़ गवांर नहीं बल्कि बगदाद विश्वविद्यालय से इस्लामी अध्ययन में पीएच.डी है। अल बगदादी को 2011 में अमेरिका ने अंतरराष्ट्रीय आतंकी घोषित किया, उसे जिंदा या मुर्दा पकडऩे के लिए एक करोड़ डॉलर का इनाम रखा। इससे ज्यादा 2.5 करोड़ डॉलर का इनाम केवल अलकायदा सरगना अयमान अल जवाहिरी पर है। इराक पर अमेरिकी हमले के बाद 2003 से अल बगदादी ने कई छोटे मोटे आतंकी हमले किए। वह मुजाहिदीन की  मजलिस अल शूरा का सदस्य रहा। अमेरिकी फौज ने उसे 2005 में पकड़ लिया था। इराक में ही अमेरिकी कैंप अल बुक्का में रखा। लेकिन 2009 में उसे इराक सरकार के हवाले कर दिया। छूटते ही उसने खुद को आईएसआई (इस्लामी स्टेट ऑफ इराक) का नेता घोषित कर दिया। उससे पहले आईएसआई के सरगना अबू उमर अल बगदादी की मौत हो चुकी थी। अप्रैल 2013 में अबू बकर ने सीरिया में भी पैर फैला लिए। संगठन के नाम में सीरिया भी जोड़ दिया। अल बगदादी ने पहले खुद को अल कायदा से जोड़ा लेकिन  जब अल कायदा सरगना जवाहिरी ने उससे सीरिया अल नुसरा के लिए छोडऩे को कहा तो उसने अल कायदा को ही छोड़ दिया। 2 दिसंबर 2012 को इराकी अधिकारियों ने दावा किया कि उन्होंने अल बगदादी को 2 महीने की मेहनत के बाद पकड़ लिया। पांच दिन बाद अल जजीरा ने कहा अल बगदादी को पकडऩे का दावा झूठा है।

भारत का क्या रुख रहा 

भारत के इराक से रिश्ते सदियों पुराने हैं। तब से जब इराक नहीं मेसोपोटामिया साम्राज्य था। भारत की आजादी को मान्यता देने वाले शुरुआती देशों में इराक भी शामिल था। और भारत इराक की बाथ पार्टी वाली सरकार को मान्यता देने वाले पहले देशों में। 1965 के भारत पाक युद्ध में इराक ने किसी का पक्ष नहीं लिया। 1971 की भारत-पाक लड़ाई में इराक ने बाकी इरब देशों के साथ पाकिस्तान का पक्ष लिया। 1980 के दशक में भारत ने इराकी वायुसैनिकों को ट्रेनिंग दी।  
इंदिरा गांधी के समय भारत दुनिया में सबसे ताकतवर था। गुट निरपेक्ष देशों का एक बड़ा संगठन भारत ने बनाया था। इराक उसका सदस्य था। अमेरिका ने 1990 के दशक में ईरान-इराक के बीच आठ साल तक युद्ध चला। 1991 में भारत ने इराक पर हमले का विरोध किया और वहां हमला करने जा रहे अमेरिकी विमानों को ईंधन देने से मना कर दिया। बाद में इराक के अकेले पडऩे से भारत से उसके रिश्तों पर भी असर पड़ा। 1999 में इराक ने भारत के परमाणु परीक्षणों का उस समय समर्थन किया जब पश्चिमी देश भारत पर प्रतिबंध लगा रहे थे। ये परीक्षण वाजपेयी सरकार के समय हुए थे और जवाब में पाकिस्तान ने भी परमाणु परीक्षण किए थे। 6 अगस्त 2002 को सद्दाम हुसैन ने कश्मीर मुद्दे पर भारत को अटल समर्थन देने की घोषणा की थी। कुवैत पर इराकी हमले के बाद इराक पर कई प्रतिबंध लगा दिए थे। उसका तेल कोई रकम देकर नहीं खरीद सकता था। तब तेल के बदले अनाज योजना शुरू हुई। भारत ने इराक की मदद के लिए इस योजना का लाभ उठाया। अपनी तेल की जरूरतें पूरी करने के लिए इराक को अनाज दिया। बाद में अमेरिकी हमले के समय सद्दाम हुसैन को आतंकी मान लिया गया, और 2005 में यह खुलासा किया गया कि तेल के बदले अनाज मामले में तत्कालीन विदेश मंत्री नटवर सिंह और कांग्रेस पार्टी ने इराक की बाथ पार्टी से दलाली ली है। काफी बवाल मचा। उस समय तक भारत में एनडीए की सरकार बन चुकी थी। बुश कह चुके थे कि जो हमारे साथ नहीं वो आतंकियों के साथ है। सद्दाम हुसैन को पकड़ कर फांसी पर लटका दिया गया।
-----------------------

इराक पर एक नजर


क्षेत्रफल : विश्व का 59वां सबसे बड़ा देश। 4,38,317 वर्ग किलोमीटर
सीमा : 3650 किलोमीटर (ईरान 1458, जोर्डन 181, कुवैत 240, सऊदी अरब 814, सीरिया 605, तुर्की 352 किलोमीटर)
समुद्री सीमा : 58 किलोमीटर
प्रांत : 18
धर्म : इस्लाम : 97 प्रतिशत (60 से 67 प्रतिशत शिया, 33 से 40 प्रतिशत सुन्नी)
इस्लाम के प्रमुख धर्मस्थल : नजफ, करबला, बगदाद, समारा
ईसाई धर्म इराक में पहली शताब्दी ईस्वी में ही पहुंच गया था।

तेल की धार

इराक में दुनिया के तेल भंडारों का पांचवा हिस्सा है। करीब 150 अरब बैरल। वर्ष 2001 के बाद से तो इराक में इतनी हिंसा है कि उसके बाद के आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं। 2009 में तेल मंत्रालय ने कई देशी-विदेशी कंपनियों को तेल निकालने के ठेके दिए गए। संयुक्त उपक्रम में तेल निकालने की फीस करीब 1.40 डॉलर प्रति बैरल रखी गई। किरकुक और उसके आसपास के तेल भंडार पर कुर्दों ने कब्जा कर लिया है। वे इस इलाके को उतना ही पवित्र मानते हैं जितना यहूदी यरुशलम को। उन्होंने इसे अपना पुराना सपना पूरा होना बताया।

Wednesday, 4 June 2014

क्या भारत सपेरों के देश से दुष्कर्मों का देश हो गया है ?


वर्ष 2013 और 2014 के अखबार और टीवी चैनल बलात्कार की खबरों से भरे पड़े हैं। कुछ टीवी चैनल बड़े गर्व से चिल्ला चिल्ला कर कह रहे हैं कि संयुक्त राष्ट्र तक ने बदायूं के बलात्कार को दुनिया की सबसे घृणित घटना माना है। एक रहस्य है जो समझ से परे है। दिल्ली में 16 दिसंबर 2012 को एक घटना हुई। देर रात सड़क पर जा रहे प्रेमी जोड़े ने बस वाले से लिफ्ट मांगी, बस में कई युवक सवार थे। उन्होंने न केवल लिफ्ट दी बल्कि लड़के को बेहोश कर लड़की से सामूहिक बलात्कार किया और बहुत ही घृणित तरीके से उसे घायल कर दोनों को सड़क पर फेंक दिया। लड़की का सरकार ने सिंगापुर तक इलाज करवाया लेकिन उसकी जान नहीं बच सकी। उसे निर्भया कांड नाम दिया गया और तत्कालीन मुख्यमंत्री को उस एक कांड के लिए इतनी गालियां दी गई मानो उनकी जिम्मेदारी हो उसे रोकना या वो खुद वहां घटनास्थल पर क्यों नहीं थीं। इसी एक मामले को इतना उछाला गया कि दिल्ली में कांग्रेस शासित राज्य खत्म हो गया और नई जन्मी पार्टी आम आदमी पार्टी से सत्ता संभाली जो महज 49 दिन चल सकी।
  वैसी घटनाएं बंद नहीं हुई लेकिन अब खबरें आना बंद हो गया। फिर लोकसभा चुनावों में माहौल कुछ दूसरा रहा। अब फिर उत्तर प्रदेश को निशाना बनाया जा रहा है जहां क्षेत्रीय पार्टी (समाजवादी पार्टी) भारी बहुमत से जीत कर सत्ता में आई थी। उस पार्टी को ऐसे निशाना बनाया जा रहा है मानो देश में हो रहे बलात्कारों के लिए वही दोषी है। सारा मीडिया, अखबार और टीवी उत्तर प्रदेश के निम्न सामाजिक वर्ग में हो रहे बलात्कारों को ढूंढ ढूंढ कर निकाल रहे हैं और वे टीवी चैनलों पर 24 घंटे सातों दिन आ रहे हैं मानो देश में केवल यूपी हो और यूपी में केवल बलात्कार। पूरी दुनिया सुन रही है। ऐसा नहीं कि बलात्कार बाकी राज्यों में नहीं हो रहे। लेकिन उन्हें रोकने के उपाय करने या सुझाने के बजाय केंद्र सरकार भी राज्य सरकार को कोस रही है और सारा मीडिया भी यह इन घटनाओं के होने या करवाए जाने का शक भी पैदा करता है। संभवतः इसलिए कि केंद्र में सत्ता में आई नई पार्टी ने उत्तर प्रदेश में आक्रामक चुनाव प्रचार किया था और बिना मतलब के मुद्दे उठा उठा कर इतना प्रचारित किया कि उसे 80 में से 73 सीटें हासिल हो गई। हो सकता है उसके विचारों और प्रचार की मेहनत के बल पर ये सीटें मिली हों, लेकिन मन में शक तो पैदा होता है जिसका कोई कुछ नहीं कर सकता। अब देश के सबसे बड़े राज्य की बहुमत से निर्वाचित सरकार को बलात्कारों के नाम पर बर्खास्त कर सत्ता हथियाने की तैयारी लगती है।
मीडिया की नजर में होते हुए भी नहीं हैं। क्यों यह तो वमध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, पंजाब, गुजरात, पश्चिम बंगाल, मेघालय, महाराष्ट्र आदि में भी बलात्कार कम नहीं हो रहे लेकिन उन राज्यों की घटनाएंह ही बेहतर जाने। मीडिया से यह कहे जाने पर कि वह उत्तर प्रदेश की घटनाओं को ही बढ़ा चढ़ा कर दिखा रहा है, मीडिया भड़क रहा है और दोगुनी चौगुनी गति से उत्तर प्रदेश के खिलाफ पिल पड़ा है। मानो उसका लक्ष्य खबरें दिखाना या समाज को सुधारना नहीं बल्कि अपना या किसी एक राजनीतिक दल विशेष के हित साधने का रह गया हो।
पहले दुनिया में भारत का नाम सपेरों और बैलगाड़ियों के देश के रूप में मशहूर था। लोग स्नेकचार्मर्स को देखने आया करते थे। सपेरे भी बीन बजा कर सांपों को नचा कर उनका मनोरंजन करते थे। अब कई देशों ने अपने नागरिकों को खास हिदायत जारी की है कि वे जरूरी न तो भारत की यात्रा न करें क्योंकि वहां हिंसा और बलात्कार की घटनाएं बढ़ रही हैं। यह क्या शर्मनाक नहीं है।
भारत में महिलाओं को ऋग्वेद काल से ही हीन या हेय दृष्टि से देखा जाता रहा है। बीच बीच में कुछ विदुषियों के नाम शायद ठीक उसी प्रकार आए होंगे जैसे इंदिरा गांधी, कल्पना चावला, किरण बेदी, प्रतिभा पाटील, मीरा कुमार आदि के आज आ रहे हैं। प्राचीन भारतीय इतिहास की पुस्तकों के अनुसार ऋग्वैदिक देवकुल में भी देवताओं की तुलना में देवियों को नगण्य ही माना गया है। इंद्राणि, रोदसी, श्रद्धा, धृति आदि को कोई विशेष महत्ता नहीं दी गई। यहां तक कि अदिति और उषा जैसी तथाकथित महत्वपूर्ण देवियों का उल्लेख भी आदर से नहीं हुआ है। इंद्र द्वारा उषा का बलात्कार अनेक स्थानों पर वर्णित है। क्या यह महज संयोग है कि जिन स्थलों पर इंद्र एवं उषा का द्वंद्व वर्णित है वहीं अवैदिक मुखियों के विरुद्ध इंद्र की सफलता का वर्णन है। 
बलात्कार को पश्चिमी सभ्यता की देन बताने वाले शायद अपने ही पुराने सामाजिक ढांचे को या तो पढ़ नहीं पाए या न समझने का ढोंग कर रहे हैं। ढोर, गंवार, शुद्र पशु नारी ये सब हैं ताड़न के अधिकारी.. भी हमारे ही बुजुर्ग कह नहीं बल्कि लिख गए हैं। इनमें नारी का अर्थ आप भी समझते होंगे।
क्या कोई इलाज भी है
समाज में ऐसी घटनाएं तब तक होती रहेंगी जब तक समाज के सभी वर्गों को समान रूप से मजबूत न कर दिया जाए। राजनेता अपनी दबंगता बनाए रखने के लिए बाहुबलियों का उपयोग करते हैं। ये बाहुबलि उन्हीं राजनेताओं का संरक्षण प्राप्त कर अपने अपने क्षेत्रों में दबंगता दिखाते हैं। जिस किसी से जरा सा मनमुटाव हुआ, उसी की बहन बेटियों या पत्नी तक को उठा लेते हैं। इसके जरिये वे अपनी मर्दानगी दिखाना चाहते हैं। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि वे अपने तर्कों में कमजोर और शरीर से पुष्ट होते हैं। अपने विरोधियों के सवालों के जवाब उनके पास नहीं होते इसलिए उन्हें खामोश करने के लिए ऐसे घिनौने तरीके अपनाए जाते हैं। अब कुछ राजनेता जानबूझ कर और कुछ पत्रकार तथा मीडिया घराने जाने-अनजाने में या मजबूरी में उनकी सहायता करने लगे हैं।

अगर बहुत गौर से देखा जाए तो हमारे सामाजिक ढांचे को सुधारने की जरूरत है। बदायूं की घटना उस समय की है जब लड़कियां शौच के लिए घर से बाहर गई थीं। उन्हें क्यों जाना पड़ा। क्योंकि घर में शौचालय नहीं था। आज भी गावों में लोग घरों में शौचालय नहीं बनवाते हैं यह मानकर कि उससे घर गंदा हो जाएगा या दिन भर बदबू आएगी। इसी सोच का लाभ गांव के मनचले और दबंग उठाते हैं। वे इस ताक में रहते हैं कि कब कौन जवान लड़की (बच्ची भी) घर से शौच के लिए निकले और वे उसे शेर की तरह झपट लें। अब सवाल स्थानीय पुलिस मदद क्यों नहीं करती। पुलिस में भी आदमी ही होते हैं जिन्हें वहां रोज काम करना होता है। खुद पुलिस के पास अपनी सुरक्षा का कोई इंतजाम नहीं रहता। कुछ थानों में मैंने खुद देखा है किस तरह राजनीतिक दलों से जुड़े छुटभैये नेता थाने में आकर थानेदार को धमका जाते हैं और थानेदार चुपचाप खड़ा सुनता रहता है। बाद में मजबूरी जताता है कि साहब क्या करें मन तो करता है..बंद कर इतना पीटें कि बोलना भूल जाए लेकिन फलां साहब का मुंहलगा है। इन्हीं हालात में कुछ पुलिसवाले अपनी जान बचाने को दबंगों का साथ देने लगते हैं और बहती गंगा में वे भी हाथ धो लेते हैं। यह हालत उत्तर भारत के लगभग सभी हिस्सों में है। वैसे, दक्षिण भारत की फिल्मों में भी ऐसा खूब दिखाया जाता है।

मेरे विचार में पुलिस को ऐसी घटनाओं से निपटने के लिए खुला हाथ दे दिया जाना चाहिए। उसे पुराने जमाने की जंग खाई बंदूकों की जगह कुछ नए हथियार देने होंगे। तभी कोई पुलिसवाला किसी दबंग की गोद में नहीं बैठेगा और किसी मजबूर बाप को यह नहीं कह सकेगा कि बाबा घर जाओ तुम्हारी बेटी लौट आएगी या किसी पेड़ पर टंगी मिल जाएगी।
समाज को भी समझना होगा। समाज कौन। हम और आप से मिल कर ही समाज बनता है। हजारों साल से समाज सुधारक आते रहे हैं, उनके काम स्कूली किताबों में शामिल हो गए लेकिन किसी ने अपने जीवन में उतारने की कोशिश नहीं की। उनके कामों को रट रट कर पास होने के लिए नहीं बल्कि जीवन में उतारने के लिए पढ़ा जाना चाहिए। आसाराम बापू जैसे धार्मिक पाखंडी भी हर गली कोने में खड़े हैं। सत्संग के नाम पर कैसी कैसी रासलीला रचते हैं यह भी समझने की जरूरत है। रामकथा के नाम पर क्या क्या होता है और वंदे मारम और भारत माता की जय की आड़ में क्या क्या होता है उससे भी सावधान रहने की जरूरत है। कौन कब कहां आपको इस्तेमाल कर ले कोई यकीन से नहीं कह सकता। किस के मन में कौन (रावण नहीं कहूगा) छिपा है भांपना आसान नहीं है। लेकिन भांपना ही होगा।

Wednesday, 28 May 2014

क्यों पढ़ा लिखा होना जरूरी है मानव संसाधन मंत्री का ?

केंद्र में बनी नई सरकार की मानव संसधान मंत्री स्मृति जूबिन ईरानी की शिक्षा और मंत्री पद को लेकर विवाद छिड़ गया है। कांग्रेस को गालियां देना शुरू हो गया है कि उसने ये बेमतलब का विवाद खड़ा किया है। असल में ये विवाद खड़ा किया है लेखिका मधु किश्वर ने। जानते हैं न उन्हें। चुनाव से बहुत पहले नरेंद्र मोदी को मीडिया में मोदी मोदी बनाने का श्रेय उन्हीं को जाता है। कांग्रेस प्रवक्ता ने केवल यह कहा कि उनकी शिक्षा जानने के लिए चुनाव आयोग में दाखिल उनकी अपनी एफिडेविट देख ली जाए।
एचआरडी या मानव संसाधन मंत्रालय देश का सबसे बड़ा और सबसे महत्वपूर्ण विभाग है। इसमें शिक्षा भी शामिल है और शिक्षा प्रणाली को क्या नया स्वरूप देना है वह भी शामिल है। देश के युवाओं को युग की जरूरतों के मुताबिक ढालने के लिए तैयार करना भी, सांस्कृतिक, शैक्षणिक, वैज्ञानिक जागरूकता बढ़ाना भी। शिक्षा आप समझते हैं..जैसी देंगे वैसे ही भावी पीढ़ियां बनेंगी। नए प्रधानमंत्री गुजरात में करीब 13 साल मुख्यमंत्री रहे हैं। वहां के शिक्षा का स्तर और पाठ्यपुस्तकों में तथ्यात्मक गलतियां सामने आती रही हैं।
खैर, वाजपेयी सरकार में एचआरडी मंत्री थे डा. मुरली मनोहर जोशी जो अच्छे खासे पढ़े लिखे हैं प्रोफेसर रहे हैं। उन्हें इस बार उनकी पार्टी ने किनारे कर दिया। क्योंकि उन्होंने स्कूल चलें हम और सर्वशिक्षा अभियान तो चलाया लेकिन स्कूल कालेजों के सिलेबस का भगवाकरण पूरा करने में नाकाम रहे। अब कोई भी ज्यादा पढ़ा लिखा व्यक्ति शिक्षा मंत्री बनेगा तो वो भारत के इतिहास और अतीत से ज्यादा खिलवाड़ नहीं कर सकेगा। 

अगर उसे प्राचीन भारत का इतिहास बताना है तो वही स्रोत रहेंगे उसे बताने के जो अब तक रहे हैं। वह अपनी मरजी से यह नहीं लिखवा सकता कि लंकापति रावण अज्ञानी था, अनपढ़ था उसने पूरी दुनिया को चौपट कर दिया था और इक्ष्वाकु वंश के राजा राम चंद्र ने अपनी पत्नी या जीवनसंगिनी का साथ जिंदगी भर नहीं छोड़ा। रामराज्य के बारे में मनगढ़ंत बातें भी वह सिलेबस में नहीं लिखवा सकता क्योंकि बहुत सी जानकारी वाल्मीकि रामायण में और अन्य प्राचीन ग्रंथों में मौजूद है, जिसे बदला नहीं जा सकता। 
श्रीकृष्ण की गाथा केवल रासलीला से नहीं उनकी राजनीतिक चतुरता से भी भरी पड़ी है, लेकिन तब यह तो बताना ही पड़ेगा कि कैसे एक इंच जमीन के लिए (या पांच गांवों के लिए या अपने हक के लिए) भाई भाई से लड़े थे, अर्जुन तो हथियार उठाने को तैयार नहीं थे, उन्हें कृष्ण ने कैसे मनाया, तब गीता सार या श्रीमदभगवतगीता को कैसे समझाएंगे।
 यह तो बताना पड़ेगा जब भारत-भूमि पर मुसलमान नहीं आए थे तब लोग लड़ते क्यों थे, राजा एक-दूसरे पर हमला कैसे और क्यों करते थे। वो किस धर्म के होते थे। क्या फिर शैव, शाक्त, वैष्णव आदि आदि की लड़ाई की परतें उधड़नी बंद हो जाएंगी।
क्या प्राचीन वर्ण व्यवस्था और उससे उपजी कुरीतियों को इतिहास के पन्नों से हटा देंगे, तब राजा राम मोहन राय और सती प्रथा का उल्लेख कैसे करेंगे, राणी सती मंदिर का जिक्र करेंगे तो सती प्रथा आज की 21वीं सदी से 22वीं सदी में जाती जनता को कैसे सही बताएंगे। मध्य कालीन भारतीय इतिहास का कोई जानकार यह तथ्य नहीं बदल सकता कि बाबर भारत क्यों आया था, उसने क्या किया, मुगल साम्राज्य का अस्तित्व किताबों से खत्म नहीं किया जा सकता क्यों उसके अवशेष देशभर में बिखरे पड़े हैं। अलाउद्दीन खिलजी की बाजार व्यवस्था, अकबर की जमीन नापतौल की व्यवस्था, कोस मीनार, सर्वधर्म समभाव, दीन ए इलाही को कैसे खत्म करेंगे। महाराणा प्रताप, महारानी लक्ष्मी बाई और उन्हीं के जैसे योद्धाओं की गाथा बताने के लिए यह तो बताना ही पड़ेगा कि उन्होंने संघर्ष किया किससे था। गोस्वामी तुलसीदास की रामचरित मानस लिखे जाते समय शासन किसका था।
आधुनिक काल में अंग्रेजों का भारत आना, भारतीय संस्कृति को बरबाद करना, सारा सोना लूट कर ले जाने वाला बताओगे तो सारे ज्योतिर्लिंग, कामाख्या पीठ, बद्री-केदार, कैसे बच गए, श्रीपद्मनाभमंदिर से निकले भारी भरकम सोने हीरे जवाहरात के बारे में क्या बताओगे। अंग्रेजों के राज में ये बच कैसे गए, कुतुब मीनार, ताज महल, लाल किला, प्राचीन महल, कैसे रह गए। फिर क्या बताओगे, माना पुष्पक विमान श्रीरामचंद्र के जमाने में था रावण के पास भी कुछ विमान थे जिनमें से एक में उसने सीतामाता का अपहरण कर लिया था, लेकिन यह तो बताना पड़ेगा कि देश का सबसे लंबा सड़क मार्ग शेरशाह सूरी ने बनवाया थे, रेलवे लाइनें भारत में अंग्रेजों ने बनवाई थीं।
 आधुनिक भारत में क्या बताएंगे..अंग्रेजों से लड़कर आजादी किसने हासिल की। शहीद भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, जलियांवाला बाग, तात्या टोपे, रानी लक्ष्मीबाई, मंगल पांडे के साथ आखिरी मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर का नाम भी लेना पड़ेगा। गांधी बाबा को दक्षिण अफ्रीका में ट्रेन से फेंक दिया गया था उसका बदला उन्होंने अंग्रेजों से लिया यह कह कर टाल नहीं सकेंगे। यह बताना पड़ेगा कि उस अधनंगे रहने वाले डेढ़ पसली के से आदमी ने छप्पन इंच का सीना न होते हुए भी अंग्रेजों की नाक में कैसे दम कर रखा था। वीर सावरकर की गाथा और उनकी किताबों के आदर्श बताते समय यह भी बताना पड़ेगा कि वे फ्रांस के बंदरगाह के पास जहाज से कूदे क्यों थे। और भी बहुत सी बातें हैं। जैसे 1925 में आरएसएस बनने के बाद से उसके स्वयंसेवक कर क्या रहे थे। आजादी की लड़ाई में उनका अपना क्या योगदान था। जो लोग उस समय पुलिस में थे क्या उन्होंने आजादी के लिए लड़ रहे आंदोलनकारियों का साथ दिया था या अंग्रेजों के आदेश पर उन्होंनें आंदोलनकारियों पर लाठी-गोली चलाई थी। भड़कने की जरूरत नहीं सब किसी न किसी कोर्ट के रिकार्ड, किसी न किसी की डायरी में लिखा है। उस समय के गजट में लिखा है। सरकारी, निजी किताबों, डायरियों में दर्ज है। नई किताबें लिखवाने से उस अतीत को नहीं भुलाया जा सकता।
आजादी की लड़ाई के इतिहास में क्या कांग्रेस के नेताओं का योगदान भूल जाओगे, माना जवाहर नेहरू, या अन्य कांग्रेसियों को भूल जाओगे लेकिन जनसंघ कैसे जन्मा, जनसंघ या भाजपा के पुराने नेताओं ने अपनी राजनीति कैसे शुरू की, यह तो बताना पड़ेगा। भाखड़ा नंगल बांध से लेकर रावतभाटा परमाणु रिएक्टर, पहला परमाणु विस्फोट, भारत-पाक युद्ध, बंटवारे में तत्कालीन भाजपा नेताओं (तब भाजपा नहीं थी, लेकिन उसे बाद में बनाने वाले नेता और आरएसएस तो थे) का क्या योगदान था। यह तो बताना पड़ेगा। आज हर आदमी की जेब में मोबाइल फोन और लैपटाप या कम्प्यूटर कैसे पहुंचा, 2जी का घोटाला बताओगे तो यह बताना पड़ेगा कि फोन की दरें इतनी सस्ती कैसे रहीं।


हां, आर्यभट्ट, वराहमिहिर जैसे विद्वानों की जानकारी व्यापक स्तर फैलाई जा सकती है जो जरूरी भी है। यह बताया जा सकता है कि टेस्ट ट्यूब बेबी का प्रचलन घड़ों में संतान के जन्म के रूप में था, उस समय की अत्याधुनिक सर्जरी के तहत गणेश के सिर पर हाथी का सिर लगाया जाना था। यह अलग बात है कि आधुनिक भारत में एक वैज्ञानिक ने सुअर का दिल मनुष्य के शरीर में लगाया तो उसे प्रोत्साहित करने के बजाय उसकी इतनी छीछालेदर की गई कि छि सुअर का दिल..उसे आत्महत्या करनी पड़ी।
लेकिन भाजपा को ज्यादा पढ़े-लिखे शिक्षा मंत्री की शायद जरूरत नहीं है। क्योंकि वह हर कदम पर सवाल उठा सकता है। सवाल खड़े करने वालों के साथ क्या हो रहा है, यह नजर आ रहा है। प्रेस कांफ्रेंसों में भी। भाजपा के शिक्षामंत्री की शैक्षणिक योग्यता पर सवाल उठाने वालों को जवाब मिल रहा है..कांग्रेस की चाल है..सोनिया की शिक्षा देखो, बताओ राहुल कहां तक पढ़े हैं। मानो सवाल उठाने वाले सब कांग्रेसी ही हैं। अगर हैं तो कांग्रेस के शासन के प्रधानमंत्री और एचआरडी मंत्री की शैक्षणिक योग्यता देख लो। जवाब है उन्होंने कौन सा तीन मार लिया। जीडीपी, ग्रोथ रेट पर चर्चा से पहले उसी अवधि में आपको देखना पड़ेगा कि दुनिया के सबसे ज्यादा पैसे वाले देश अमेरिका में आया सीक्वेस्टर संकट क्या था। कैसे दुनिया की कार सिटी कहलाने वाले शहर को दिवालिया घोषित होने के लिए कोर्ट का सहारा लेना पड़ा। क्यों यूरोप और अमेरिकी देशों में गंभीर आर्थिक संकट आया।
लेकिन इस सबके लिए पढ़ा लिखा होना भी जरूरी है। भावनाएं भड़काकर या दूसरों की लाई तकनीक का सहारा लेकर कम जानकार लोगों में महान बनना आसान है लेकिन जानकार लोगों (मोटी कमाई के लालच में पड़े उद्योगपतियों नहीं) को मूर्ख कब तक बना पाओगे। मकसद केवल चुनाव जीतना नहीं, उसके बाद काम करना भी है।

Saturday, 24 May 2014

आओ कुछ भूलने की कोशिश करें


दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में जनता ने अपने मताधिकार का प्रयोग कर सत्ता बदल दी है। इसमें जितना योगदान प्रचारतंत्र का रहा उतना इससे पहले के किसी चुनाव में नहीं हुआ। प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार जो अब प्रधानमंत्री पद की शपथ ले रहे हैं उन्होंने अपनी हर चुनावी रैली में सत्तारूढ़ दल और उसके नेताओं पर कटाक्ष किए व्यंग्यबाण छोड़े। कहा 60 साल तक उस सरकार ने कोई काम नहीं किया। यह अलग बात है कि जिस इंटरनेट, 3डी तकनीक से उन्होंने प्रचार किया वह वही सरकार लाई थी जिसे खूब निकम्मा, भ्रष्ट, लाचार और कामचोर बताया गया था। जब पूछा जाता कि इस पार्टी के पास ऐसे शाही प्रचार के लिए पैसा कहां से आया तो कहा जाता आपको किसने रोका है आपमें दम है तो आप भी खर्च करो। इस पार्टी के भ्रष्ट लोगों पर सवाल उठाना मानो गवाह था। एक पार्टी के नेता तो इस गुनाह के कारण जेल में हैं। किसी अपराध में नहीं बल्कि तकनीकी कारणों से।
नई सरकार बनने से पहले ही हमें बहुत सी चीजें भूल जाने को कहा गया है। जो साहेब प्रधानमंत्री बन रहे हैं उन्होंने चुनावी रैलियों में सत्तारूढ़ दल की सरकार को फटकारते हुए कहा था कि वह पड़ोस की उस सरकार से बात कर रही है जो हमारे सैनिकों के सिर काट कर ले गया, पाकिस्तान के नेताओं को बिरयानी खिला रही है, जब तक पाकिस्तान हमारे शहीदों के कटे सिर नहीं लौटा देता, दाऊद को हमें नहीं सौंप देता, हाफिज सईद को हमें नहीं सौंप देता उससे कोई बात नहीं नहीं होनी चाहिए..फिर वे जनता से पूछते क्यों भाइयों सही है कि नहीं। भीड़ से आवाज आती सही है..अब जब वे जीत गए उन्होंने सबसे पहला न्योता अपने उसी पड़ोसी कट्टर दुश्मन बताए गए देश के नेता को निमंत्रण दिया है। अब उनकी पुरानी बातों की याद दिलाने पर वे फटकार देते हैं। उनका कहना है कि उन्हीं की पुरानी बातों को उठाने वाले दोनों देशों के संबंध सुधरने नहीं देना चाहते। वही प्रायोजित भीड़ जो कल पाकिस्तान को गालियां दे रही थी, आज वहां के प्रधानमंत्री को बुलाए जाने पर अपने नेता की तारीफ कर रही है। कहती है यह सार्थक पहल है। वोटर हक्का बक्का है। न शहीदों के सिर लौटे, न उस देश ने उस कृत्य के लिए माफी मांगी, न वहां से आतंकवाद बंद हुआ, न आतंकी शिविर खत्म हुए, न उसने कश्मीर पर अपना रवैया बदला। फिर हुआ क्या..ये सत्ता में आने से पहले ही इतनी जल्दी बदल कैसे गए। इनके साथ सुर में सुर मिला कर उठाए गए सवाल अब उठाना देशद्रोह भी माना जा सकता है। फिर पुरानी दोस्ती है, कारोबारी। जनता होती कौन है सवाल उठाने वाली। उसका इस्तेमाल करना था सो भावनाएं भड़का कर हो गया। अब हम अच्छे पड़ोसी की तरह रहना चाहते हैं, व्यापार श्यापार करना चाहते हैं तो इसमें बुरा क्या है। और सैनिक तो नौकरी कर रहे हैं। उन्हें अच्छी तरह पता है कि वे सेना में भर्ती हुए हैं तो कभी न कभी तो जान जाएगी ही। सरकार उन्हें वेतन-भत्ते देती है। दुश्मन की गोली से मारे जाने पर शहीद का दर्जा देती है। खुद नए प्रधानमंत्री ने हिमाचल की एक रैली में कहा था शहीद अपने परिवार का नहीं होता वो पूरे देश का होता है। उस चुनाव क्षेत्र से एक शहीद की मां चुनाव लड़ रही थी, उसके बेटे के नाम पर ही उसका विरोध किया गया। मां को अपमानित करते हुए कहा गया उनका बेटा था तो क्या हुआ शहीद तो देश का था। और उस शहीद की मां को हरवा दिया गया। चुनाव में। न शहीदों के सिर लौटे, न सम्मान। भूल जाओ। क्योंकि किसी ने पहले ही कह दिया है शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले यही बाकी उनका निशां होगा। लोगों को याद होगा सरबजीत सिंह जिसे मंजीत सिंह बता कर लाहौर बम कांड के लिए फांसी की सजा सुनाई गई थी और पाकिस्तान की जेल में पीट पीट कर मार दिया गया था। उसकी बहन के साथ मिलकर इस नई सत्तारूढ़ पार्टी के नेताओं ने सरबजीत को छुड़वाने की कोशिशें की थी। नाकाम रहे वो अलग बात है। अब उसकी बहन भी पूछ रही है कि क्या नवाज शरीफ हो गए हैं। भूल जाओ।
पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने भी चुनावी रैलियों में भारत का खूब जिक्र किया था, लेकिन वहां उन्होंने कही था कि वो भारत से दोस्ती कायम करेंगे। रिश्ते सुधारेंगे। उन्हें उस बात पर जनता ने समर्थन दिया था। हमारे यहां समर्थन लिया गया है पाकिस्तान को सबक सिखाने के लिए।
 वाजपेयी काल में नवाज ही शरीफ थे। वाजपेयीजी ने दोस्ती की पहल की थी, उधर से करगिल पर हमला हो गया था। वहां तख्ता पलटने के फौजी शासक मुशर्रफ को बातचीत के लिए आगरा बुलाया था, बात बनी नहीं वो बिगड़ कर लौट गए। पता नहीं क्या हुआ इस बीच कोई अधिकृत जानकारी नहीं। लेकिन कांग्रेस के समय पाकिस्तान के प्रधानमंत्री जियारत करने अजमेर आए और शिष्टाचार विदेश मंत्रालय़ द्वारा उन्हें जयपुर में एक समय खाना खिलाया गया तो ये पार्टी कितनी बुरी तरह से कांग्रेस पर टूटी थी यह अखबारों में छपा और टीवी पर आया इसलिए उसे भूलना थोड़ा मुश्किल होगा।

पाकिस्तान के एक प्रधानमंत्री थे जुल्फकार अली भुट्टो, वहीं जिन्हें भारत बुला कर इंदिरा गाधी ने शिमला समझौते पर दस्तखत करवाए थे। भारत में कांग्रेस की आलोचना होती है कि उसने 90,000 पाकिस्तानी सैनिकों को यूंही छोड़ दिया। उन भुट्टो को पाकिस्तान में फांसी की सजा सुनाई गई। दुनियाभर के राजनेताओं ने उसका विरोध किया। इंदिरा गांधी ने भी विरोध किया, लेकिन उस समय हमारे यहां मोरारजी भाई प्रधानमंत्री थे (इंदिरा गांधी विपक्ष की नेता) उन्होंने विरोध करने या भुट्टो को रिहा करने की अपील करने से साफ मना कर दिया।
भुट्टो को फांसी पर लटका दिया गया और मोरारजी भाई को 1990 में पाकिस्तान का सबसे बड़ा सिविलियन अवार्ड निशान-ए-पाकिस्तान मिला। उन्हीं भुट्टो ने शिमला समझौता करने के बाद पाकिस्तान पहुंच कर कहा था हम भारत से एक हजार साल तक लड़ेंगे। जब वे शिमला आए थे तो उनके साथ उनकी प्यारी सी किशोरी बेटी बेनजीर भी थी। उस समय अटल बिहारी वाजपेयी ने कविता लिखी थी मालरोड पर बेनजीर। यही बेनजीर बाद में पाकिस्तान की पहली महिला प्रधानमंत्री बनी, विस्फोट में मारी गई। उनके पति आसिफ अली जरदारी राष्ट्रपति बने जो मिस्टर 10 परसेंट कहलाते थे।
पड़ोसियों से संबंध सुधारे जाने चाहिए सब मानते हैं। आखिर चारों तरफ से शांति होगी तभी तो देश प्रगति करेगा। राजीव गांधी के समय पड़ोसी देशों का एक संगठन बना कर सार्क नाम दिया गया था। वह इसी उद्देश्य के लिए था। प्रयास बहुत पहले से हो रहे थे यह अलग बात है। इस संगठन में पाकिस्तान भी है बांग्लादेश भी। श्रीलंका भी है और मालदीव भी। अफगानिस्तान, नेपाल भी है और भूटान भी। उसके आगे म्यांमार या बर्मा इसमें नहीं है।

श्रीलंका के राष्ट्रपति महिंदा राजपक्सा को भी आमंत्रित किया गया है। उन्हें उत्तरी श्रीलंका में भारतवंशी तमिलों के मानवाधिकारों उल्लंघन को दोषी अंतरराष्ट्रीय तौर पर माना गया है। उत्तरी श्रीलंका को आजाद तमिल देश बनाने की मांग करने वाले लिट्टे के सफाए के नाम पर उनके नेतृत्व में श्रीलंका की सेना ने वहां रहने वाले आम तमिल लोगों पर भारी अत्याचार किए। ठीक वैसे ही जैसे पाकिस्तान के सैनिकों ने बांग्लादेश में वहां के आजादी के संग्राम के समय किए थे। लिट्टे के आतंकियों ने भले ही पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या कर दी हो, लेकिन उसके नेता प्रभाकरण के समर्थक वाइको की पार्टी आज केंद्र में सत्तारूढ़ होने वाली एनडीए में हैं। तमिलनाडु सरकार (मुख्यमंत्री जय ललिता) ने राजपक्सा को भारत बुलाए जाने का सख्त विरोध किया है। जयललिता की पार्टी ने तमिलनाडु की 39 में से 37 सीटें जीती हैं। यानी वहां राज्य में उनकी सरकार है और लोकसभा में राज्य से सबसे ज्यादा सीटें। फिर भी उनकी बात नहीं सुनी जा रही तो कैसा लोकतंत्र। लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए भाजपा ने कांग्रेस की यह कह कर कड़ी आलोचना की थी कि उसने श्रीलंका की राजपक्सा सरकार के खिलाफ अंतरराष्ट्रीय मंच पर आवाज बुलंद नहीं की थी। खूब बुरा-भला कहा था। दिमाग चकरा गया है। क्या भूलूं क्या याद करूं। कोई ये न कहे कि लिट्टे के सफाए और तमिलों पर अत्याचार में सेना का हाथ था, क्योंकि श्रीलंका के राष्ट्रपति चुनाव में तत्कालीन सेना अध्यक्ष सरथ फोंसेका भी खड़े हुए थे। इन्हीं राजपक्सा ने कहा था कि सेना ने तो सिर्फ राष्ट्रपति (तब वे खुद ही राष्ट्रपति थे) के आदेश का पालन किया है। फोंसेका चुनाव हार गए थे तो उन्हें कैद कर लिया गया। आरोप था तमिलों पर अत्याचार का। कितना आसान होता है भूल जाना।


बांग्लादेश तो सबको याद होगा। 1971 के भारत-पाक युद्ध में कांग्रेसी प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के मजबूत इरादों से हमारी सेना के जवानों ने पाकिस्तान के दो टुकड़े करवाए थे। वरना वह दोनों तरफ से नाक में दम किए था। उसी पाकिस्तान का पूर्वी हिस्सा है बांग्लादेश। आज के युवाओं को बताना जरूरी है क्योंकि वे केवल यह जानते हैं कि बांग्लादेश से घुसपैठिए आते हैं। बांग्लादेश में बंगाली मुसलमानों की संख्या ज्यादा है और बंगभंग के दौरान अंग्रेजों ने उस इलाके को बंगाल से अलग किया था। आज पश्चिम बंगाल भारत में है लेकिन पूर्वी बंगाल कहीं नहीं है वह अब बांग्लादेश कहलाता है। यानी बंगाल और बांग्लादेश का गर्भनाल का रिश्ता है। आपको न पता हो तो यह जान लें कि भारत और बांग्लादेश दोनों के राष्ट्रगान एक ही व्यक्ति रबींद्र नाथ टैगोर के लिखे हुए हैं। जन गण मन भी और आमार सानार बांग्ला, आमी तोमाए भालोबाशी भी। हमारे नए प्रधानमंत्री जब प्रधानमंत्री नहीं बने थे उन्होंने चुनावी रैलियों में बांग्लादेश से शरण लेने आए सभी हिंदुओं को अपना और मुसलमानों को घुसपैठिया बताया था। कहा था सत्ता में आए तो भारत में रहने वाले सभी बांग्लादेशी घुसपैठियों को खदेड़ दिया जाएगा। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने उसका कड़ा विरोध किया था। चुनाव में उनकी तृणमूल कांग्रेस ने राज्य की 42 में से 34 सीटें जीती हैं और भाजपा ने दो।  यहां विरोध बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना का नहीं हो रहा। वे तो बंगबंधु शेख मुजीब की बेटी हैं जिन्हें इंदिरा गांधी ने उस समय पाकिस्तान की जेल से छुड़वा कर बांग्लादेश की सत्ता सौंपी थी। शेख मुजीब पहले विदेशी नेता हैं जिनका तेजस्वी भाषण मैंने सुना था। जेल से छूट कर आने के बाद वे कलकत्ता में बोल रहे थे। समझ में कुछ नहीं आया था क्योंकि वो बांग्ला बोल रहे थे और मैं छोटा था बांग्ला आती नहीं थी। लेकिन वो भाषा के बंधन से परे वाकई जोश भरने वाला भाषण था। तो बांग्लादेश की प्रधानमंत्री को निमंत्रण में विरोध क्यों। जिस देश के लोगों को, उनकी मजबूरी को आपने सरे आम भला-बुरा कहा हो क्या वहां के नेता से आप आंख मिला पाएंगे। हां अगर आपमें शर्म नाम की कोई चीज न हो तो।


अलबत्ता, मालदीव सुंदर द्वीपों का समूह है। वहां के राष्ट्रपति अब्दुल्ला यामीन अब्दुल गयूम हैं। उनके पिताजी मौमून अब्दुल गयूम 1978 से 2008 तक देश के राष्ट्रपति रहे हैं। वहां 2012 में राष्ट्रपति मुहम्मद नशीद को अप्रत्याशित तरीके से इस्तीफा देना पड़ा था, वे भाग कर भारतीय दूतावास में आ गए थे कुछ दिन बरामदे में ही बैठे रहे। बाद में उन्हें जाना पड़ा और गिरफ्तार कर लिए गए। उससे पहले 1988 में कुछ तमिल अलगाववादियों के सहयोग से अब्दुल्ला लुतुफी ने मालदीव में गयूम का तख्ता पलट दिया था। तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने आपरेशन कैक्टस के तहत सेना की टुकड़ी भेज कर 3 नवंबर 1988 को मालदीव को तख्ता पलट करने वालों से मुक्त करवाया।
नेपाल और भूटान से भारत को कभी कोई समस्या नहीं रही। दोनों देश कभी कभी चीन के प्रभाव में आ जाते हैं। नेपाल कभी दुनिया में अकेला हिंदूराष्ट्र था। अब धर्मनिरपेक्ष है। काठमांडु का पशुपतिनाथ मंदिर वाकई देखने लायक है। वहां लिखा था गैर हिंदुओं का प्रवेश वर्जित है, लेकिन इसका शायद सख्ती से पालन नहीं होता क्योंकि मैं वहां कुछ ईसाइयों के साथ गया था और किसी ने रोका नहीं।
अंत में मुझे यह कहने में कोई लाग लपेट नहीं कि पड़ोसियों से संबंध सुधरने चाहिए। सब चाहते हैं शांति रहे। मेरा कहना सिर्फ ये है कि लोगों की भावनाओं से खिलवाड़ बंद होना चाहिए। हो सकता है झूठ बोलकर आप सत्ता पा जाएं, झूठ बोलकर हमेशा सत्ता में बने रहें, लेकिन कोई परम शक्ति है जो ये सब देखती होगी। उस दिन आप अपने आपको क्या जवाब दोगे। इसलिए क्यों न सत्य की राह पर चल कर देश और दुनिया को आगे बढ़ाया जाए। डंके की चोट पर सच बोला जाए। सच को सच माना जाए।

Friday, 23 May 2014

पर उपदेश कुशल बहुतेरे : कांग्रेस को सीख

पर उपदेश कुशल बहुतेरे  : कांग्रेस को सीख










राकेश माथुर
कांग्रेस को इस बार लोकसभा में करारी शिकस्त खानी पड़ी है। परिणाम आने के पहले और बाद में जिसे देखो कांग्रेस को उपदेश दे रहा था। अभी भी भाजपा सहित लगभग सभी दलों के नेता और कार्यकर्ता कांग्रेस को न केवल भला-बुरा कह रहे हैं बल्कि यह भी बता रहे हैं ऐसा करना चाहिए था, वैसा करना चाहिए था। कांग्रेस के कुछ नेता भी पार्टी नेतृत्व पर अपनी हार का ठीकरा फोड़ रहे हैं। मेरा नजरिया इस पर अलग है।

मीडिया को चटखारे वाली खबरें चाहिएं। कांग्रेस के नेता चाहे वो मिलिंद देवड़ा हों, दिग्विजय सिंह हों या बेनी प्रसाद वर्मा ऐसी खबरें देते रहे हैं। जिस तरह से मीडिया ने राहुल गांधी, मुलायम सिंह, अखिलेश यादव का मजाक उड़ाया है उसी तरह का मजाक अगर मीडिया दूसरी पार्टी के कुछ खास नेताओं का उतारता तो शायद उसे समझ में आ जाता कि मजाक और गंभीरता में क्या फर्क होता है। देश की सरकार बनाने और युवाओं को गुमराह कर सत्ता पाने में क्या अंतर होता है। खैर, हम लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की हार की बात कर रहे थे। इस चुनाव में 50 से ज्यादा नेता ऐसे थे जो कांग्रेस का टिकट लेने के बाद या उसके ऐन पहले भाजपा में शामिल हो गए। ज्यादातर जीत गए। उन्होंने क्यों और कैसे दल बदला तथा वे कैसे जीते इस पर कांग्रेस नेतृत्व को सोचना होगा। कांग्रेस को यह भी सोचना होगा कि उसके नेता खुले आम पार्टी नेतृत्व को ठीक वैसे ही गालियां या बुरा भला क्यों कहने लगे जैसे विपक्षी दल कहते हैं। क्या ऐसे लोगों से पार्टी छोड़ देने को कहा जाए या शांत रह कर पार्टी फोरम में चर्चा करने को कहा जाए। ऐसे नेताओं से पूछा जाना चाहिए कि उनकी जमीनी पकड़ कितनी थी, उन्होंने खुद जीतने के लिए क्या कोशिशें कीं। क्या वे केवल आलाकमान के भरोसे बैठे थे। क्या उन्हें किसी ने कहा था कि वे जीतने की कोशिश न करें। क्या उन्होंने यह देखने की कोशिश की कि विपक्षी दल चुनाव जीतने के लिए कौन कौन से पेंतरे अपना रहा है। क्या उन्होंने हर बूथ पर अपने लोग तैनात किए। अगर किए तो क्या वे विश्वासयोग्य थे। पहले उन्हें खुद अपनी समीक्षा करनी चाहिए। आखिर इस बुरी हालत में भी 44 लोग तो जीत कर आए ही हैं। वे कैसे जीते।
सबसे जरूरी बात यह है कि नीयत चाहे कितनी भी अच्छी हो, मीडिया उसका प्रचार किस तरह कर रहा है इस पर नजर रखना और दुष्प्रचार रोकने के तरीके अपनाना बहुत जरूरी है। मीडिया का रुझान तो इस चुनाव में साफ नजर आया। कुछ टीवी चैनलों ने चर्चा में कांग्रेस के प्रतिनिधियों को बुलाया लेकिन उनके कुछ बोलना शुरू करने से पहले ही एंकरों ने उन्हें जलील करना शुरू कर दिया। कांग्रेस के वे प्रतिनिधि खामोश रह गए, उन्हें बोलने का मौका नहीं दिया गया और कहा गया कि उनके पास कोई जवाब ही नहीं है वो कहेंगे क्या। इसके साथ ही पैनल में बैठे बाकी सभी लोग कांग्रेस का मजाक उड़ाने लगते। ऐसा क्यों हुआ, इस पर विचार करना जरूरी है वर्ना हर बार यही होगा। इसे रोकने के लिए सख्त कदम उठाने होंगे। ऐसे एंकरों को बुरी तरह झाड़ने में सक्षम नेताओं को ही टीवी की बहस में भेजा जाना चाहिए।
चुनाव और प्रचार के दौरान ज्यादातर अखबारों और टीवी चैनलों में एक लाइन जरूर थी, कांग्रेस बुरी तरह हार रही है, इस बार कांग्रेस किसी कीमत पर नहीं जीतेगी। ऐसे लेखकों और मीडिया पर कांग्रेस को नजर रखनी होगी। परिणाम आने से पहले कोई कैसे कह सकता है कौन जीतेगा कौन हारेगा। असल में यह भाजपा के चुनाव प्रचार का हिस्सा था। वे लेखक भाजपा या राष्ट्रीय स्वयं सेवक की विचारधारा के थे या उन्हें ऐसा लिख कर माहौल बनाने के पैसे दिए गए थे। कुछ भी हो अपने पक्ष में चुनावी माहौल बनाने के लिए सभी पार्टियां ऐसा करती हैं, यह गलत भी नहीं है लेकिन इस बार ऐसा केवल एक पार्टी के लिए हुआ। दूसरी सभी पार्टियों को खराब बताया गया। एक माहौल बनाया गया। खैर,  इस बार तो जो हुआ सो हुआ लेकिन अगली बार इसकी काट खोजना बहुत जरूरी है। कहीं ऐसा तो नहीं जिस पर चुनाव प्रचार के लिए बहुत ज्यादा भरोसा किया था वही धोखा दे गया।
जीतने वाली पार्टी की चुनावी रणनीति को भी समझना जरूरी है। उसके पास इस बार एक व्यवस्थित रणनीति थी यह तो मानना ही पड़ेगा। इसमें झूठ, दबंगता, शारीरिक हावभाव, डंके की चोट पर गलत बात कहना भी शामिल था तो एक पूरी फौज टेक्नोक्रेट्स, भाषण लेखकों और आईटी एक्सपर्ट्स की भी थी। माना कांग्रेस के खून में झूठ, दबंगता और डंके की चोट पर गलत बात कहना नहीं है, लेकिन आईटी एक्सपर्ट्स और टेक्नोक्रेट्स की उतनी बड़ी नहीं तो छोटी फौज तो कांग्रेस के पास भी थी। अंतर केवल इतना था कि उसमें शायद राजनीति और विपक्ष की चाल समझने वाले नहीं थे।

कांग्रेस और अन्य सभी दलों को इस बार किसी भी चुनाव से पहले ईवीएम पर खास नजर रखनी होगी। कई जगहों से ऐसी खबरें आई कि कोई भी बटन दबाओ, एक खास पार्टी को ही सारे वोट जाएंगे। कुछ जगहों पर यह सही पाया गया। कार्रवाई केवल इतनी हुई कि ईवीएम बदल दी गई। लेकिन उसमें भी वही था। यानी इस किस्म के आईटी एक्सपर्ट उस पार्टी के पास थे जो ईवीएम का परिणाम बदलने में सक्षम थे। बीबीसी ने इस पर एक रिपोर्ट भी प्रसारित की थी। मध्य प्रदेश विधानसभा चुनावों में भी ऐसा हुआ था। इसलिए सतर्क रहना बहुत जरूरी था, लेकिन कांग्रेस इस जगह पर बुरी तरह से चूक गई।  इसे आधुनिक तरीके से बूथ कब्जा करना कहा जाता है। भाजपा ने वन बूथ 10 यूथ की रणनीति तैयार की थी। उसकी मदद कर रहे राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने भी हर बूथ पर अपना एक अलग व्यक्ति तैनात करने की योजना बनाई थी। इसका मतलब उन्होंने बताया कि बूथ पर ज्यादा से ज्यादा वोटर लाने के लिए उन्होंने ऐसा किया। लेकिन मीडिया में दूसरी तरह की रिपोर्टें भी आई। इस पर कांग्रेस ने कोई रणनीति नहीं बनाई। अगर बनाई भी तो उस पर अमल होता नहीं दिखा। यानी हो सकता है कुछ आस्तीन के छिपे सांप हों या कुछ ने केवल कह दिया हो कि हां हमने कर दिया इंतजाम और कुछ किया ही न हो। तो अगर ऐसी जिम्मेदारी किसी को दी गई हो तो उससे जवाब तलब किया जाए।

पार्टी में राष्ट्रीय स्तर से लेकर प्रदेश, जिला, पंचायत, तहसील, गांव, मुहल्ला, वार्ड  स्तर तक पदाधिकारियों की इतनी लंबी चौड़ी फौज आखिर कर क्या रही थी। क्या वह सिर्फ राहुल गांधी या सोनिया गांधी से किसी करिश्मे की उम्मीद में बैठी थी। आखिर पदाधिकारी होते क्यों हैं। क्या केवल पद का लाभ लेने के लिए। क्या पार्टी के प्रति उनकी कोई जिम्मेदारी नहीं होती। आखिर गुटबाजी क्या करेगी जब कोई भी नहीं जीत पाएगा। एक दूसरे को हराने में लगे नेता पार्टी को बिल्कुल खत्म कर दें उससे पहले उन्हें पार्टी से बाहर कर दिया जाए यही बेहतर होगा। एक कारपोरेट कंपनी की तरह अब हर पदाधिकारी से हर महीने पूछा जाना चाहिए कि उसने अपने इलाके में पार्टी के हित में क्या काम किया। उसके दावे की जांच भी होनी चाहिए और समीक्षा भी। जांच और समीक्षा पुराने अनुभवी लोगों से करवाई जानी चाहिए न कि नए पहली बार राजनीति में आए युवाओं से।
किसी जमाने में कांग्रेस और युवा कांग्रेस हर बड़े नेता की जयंती या पुण्यतिथि पर रक्तदान शिविर लगाती थी, गरीबों के लिए कपड़े, कंबल आदि एकत्र कर उन्हें बंटवाती थी, उनका बाकायदा प्रचार भी होता था। असल में काम होने से लोगों पर उसका असर भी पड़ता था। अब एयरकंडीशंड में बैठने वाले नेटसेवी लोगों की फौज बिना एसी गाड़ी के सड़क पर नहीं निकल सकती। तो असल काम करेगा कौन। रात में झोपड़ पट्टी में चुपचाप कांग्रेस के झंडे फहरा देने से वोट नहीं मिलते। उन इलाकों में काम भी करना पड़ता है और उसका प्रचार भी। खेत में मजदूर के साथ रोटी खाने वाली फोटो प्रसारित करने से पहले यह भी देख लें कि ठेठ गांव के खेत में बोनचाइना की प्लेट कहां से आएगी। ऐसी ही एक तस्वीर का पिछले दिनों सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर खूब मजाक उड़ा था।
अब भी समय है। किसी का लिहाज करने से या अरे छोड़ो यार ऐसा हम नहीं करते..कहने से पहले पार्टी के कुछ उन लोगों की जीवनियां देख ली जाएं जो बहुत ऊपर तक चढ़े थे। जिन राज्यों में दूसरे दलों की सरकारें हैं वहीं के घपले घोटाले जोरों से उठाए जाएं। मध्य़ प्रदेश और छत्तीसगढ़ में ऐसे मामलों की भरमार है लेकिन कांग्रेस के लोग या तो भाजपा सरकार से लाभ उठाने के कारण खामोश हैं या जोर-शोर से मामले उठाने के लिए उनके पास युवाओं की फौज नहीं है। युवाओं की सेना को संगठित करने के लिए जमीनी स्तर पर सबको मिलकर कोशिश करनी होगी।

Monday, 27 January 2014

बिहार से पहला इंटरव्यू..


राकेश माथुर™




मैं पहली बार बिहार 1986 में आया था। तब कांग्रेस का शासन था और झारखंड अलग राज्य नहीं बना था। नवभारत टाइम्स यानी नभाटा का पटना संस्करण शुरू होने  वाला था। मैं जयपुर में था। नभाटा जयपुर से शुरू हो चुका था, लेकिन मैंने उसमें जाने से इनकार कर दिया था। राजेंद्र माथुर तब नभाटा के संपादक थे। उन्होंने मुझसे कहा पटना चलो। वहां से संस्करण शुरू हो रहा है। पटना यानी बिहार..नाम सुनते ही दिल कांप गया था। दो साल पहले चंडीगढ़ का एक अच्छा ऑफर महज इसलिए ठुकरा दिया था कि वह समय और स्थान पत्रकारों के लिए खतरनाक था। मेरी दुविधा, अपने पिता का अकेेला बेटा (मां बचपन में ही छोड़ गई थी)। दुविधा में देखकर माथुर साहब ने पूछा क्या बात है। वे बेहद सरल स्वभाव के थे। मैंने कह दिया बिहार बहुत हिंसा वाली जगह है, वहां तो खतरा बहुत है। बिहार के बारे में तब मेरे यही विचार थे। माथुर साहब हंसे..बोले पटना एक राज्य की राजधानी है। ऐसा नहीं कि वहां लाशें बिछी रहती हैं। नई जगह है पत्रकारिता का खजाना है। बहुत ना नुकुर के बाद मैंने पिताजी से बात की। उन्होंने कहा नई जगह है देख आओ। न जमे तो लौट आना। मैं बुध पूर्णिमा के दिन पटना पहुंचा, सरकारी छुट्टी थी इसलिए पहुंचने का टेलिग्राम घर नहीं भेज सका। तब मोबाइल फोन नहीं थे। ट्रंक काल बुक करवाना पड़ता था। उसके बाद मैं नौ साल पटना में रहा। यहीं प्यार भी हुआ, ब्याह भी और दो बच्चे भी।
वाकई अद्भुत राज्य है बिहार। ऐतिहासिक दृष्टि से बिहार को खोजना, तलाशना और तराशना सदियों से जारी है। भारत का ज्यादातर ऐतिहासिक खजाना यहीं है। बीच में बिहार एक ऐसा राज्य हो गया था जिसे लोग अपमान के रूप मेंं ज्यादा याद करते थे तब शत्रुघ्न सिन्हा ही एकमात्र व्यक्ति थे जिन्होंने खुद को बिहारी बाबू कहलवा कर बिहार के गौरव को कायम रखा। जेपी मूवमेंट से निकले लालू प्रसाद यादव ने कहा था वे 20 साल तक मुख्यमंत्री रहेंगे। 15 साल रहे जब हटना पड़ा तो निरक्षर पत्नी को मुख्यमंत्री बना दिया। पांच साल राबड़ी देवी ने राज किया। लालू राज की एक बात और याद दिला दें। टाइम्स ऑफ इंडिया के संपादक थे उत्तम सेन गुप्ता। एक दिन फ्रेजर रोड पर दफ्तर के सामने ही किसी ने उन पर गोली चला दी। जीवट वाले उत्तम दा ने गोली चलाने वाले की गर्दन पकड़ ली थी। घटना के थोड़ी ही देर मुख्यमंत्री लालू प्रसाद दफ्तर पहुंचे। सभी पत्रकारों ने उन्हें घेर लिया। मैंने भी काफी कुछ कहा। पत्रकारों की सुरक्षा की मांग की। लालू का जवाब था डरोगे तो पत्रकारिता कैसे करोगे। बाद में चीफ रिपोर्टर ने बताया कि लालू प्रसाद मेरे बारे में पूछ रहे थे कि ये जो बहुत हिंदी छांट रहा था कौन था। मुझे भोजपुरी आती नहीं थी।
शुरू में बहुत अजीब लगता था। तब डाक और सिटी एडीशन निकला करते थे। दोनों के बीच कुछ समय होता था इसलिए स्टेशन तक चाय पीने चले जाते थे। अच्छा लगता था महावीर मंदिर के सामने बस स्टैंड और बस कंडक्टरों की यात्रियों को बुलाती सुर में चिल्लाती आवाजें। देर रात दफ्तर से बाहर निकलते तो पुलिस वाले जीप लेकर बगल में आ जाते। कहते, आप लोग रात में बाहर मत निकला करो कुछ भी हो सकता है। हमें कहना पड़ता हमारा तो काम ही रात का है। कंपनी की कार घर छोड़ती थी, इसलिए ज्यादा परेशानी नहीं थी। रोज सुबह बांसघाट से नाव पकड़ कर सूर्योदय देखते हुए नदी के उस पार जाते और घंटे-आधा घंटे रुक कर लौट आते। तब नाव वाला दस रुपए लेता था। नदी का इतना चौड़ा पाट मैंने पहली बार पटना में ही देखा था।
पटना जैसे शहर में केवल बेली रोड से डाक बंगला चौराहा और रेलवे स्टेशन से गांधी मैदान। ज्यादा हुआ तो गोलघर। बस यही देखकर कोई लौट जाता तो पटना बहुत अच्छा था। तब न इतने अपार्टमेंट थे न मॉल। एंबुलेंस के पीएमसीएच तक पहुंचने के दौरान ट्रैफिक जाम से निकल पाए तभी जान बच सकती थी। 
तब से गंगा मैया ने भी रास्ता बदला और कोसी तो रास्ता बदलने के नाम पर कहर बरपा ही चुकी है। सत्ता में भी बहुत बदलाव हुए हैं। कांग्रेस के हाथ से सत्ता गई सो आज तक नहीं लौटी। लालू-राबड़ी का राज आकर चला गया। भाजपा ने सहयोग देकर नीतीश कुमार की सरकार बनवाई और सत्ता से हट गई। नीतीश बिना भाजपा के सरकार चला रहे हैं।
राजनीति के अलावा भी बिहार में बहुत कुछ है। यहां का गांधी मैदान इतना बड़ा है कि शायद ही कभी पूरा भरा हो। जेपी आंदोलन के समय भी नहीं और हाल कुछ समय पहले भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी की रैली के समय भी। हां, मोदी की रैली के समय शांति के मसीहा महात्मा गांधी की प्रतिमा के पास जैसे लोगों के प्राण गए वैसे विस्फोट पहले कभी गांधी मैदान में तो नहीं ही हुए।
बिहार में युवा शक्ति सबसे ज्यादा ताकतवर है। ऐसी शायद ही कोई राष्ट्रीय प्रतियोगिता परीक्षा हो जिसमें बिहार के युवा अव्वल न आए हों। 1991 में जब मैंने कैरियर गाइड निकालना शुरू किया युवाओं ने उसे हाथों-हाथ लिया। देश-दुनिया की ऐसे कोई प्रतियोगी परीक्षा नहीं थी जिसकी जानकारी उसमें न हो। उस समय बिहार की शैक्षिक स्थिति अच्छी नहीं थी। यहां के युवा उच्च शिक्षा के लिए सीधे दिल्ली का रुख करते थे। बिहार लोकसेवा आयोग की परीक्षाओं के परिणाम कभी कोर्ट रद्द कर देता था तो कभी परिणाम आने में इतनी देर होती थी कि तब तक परीक्षा में शामिल लोगों का दूसरी परीक्षओं में चयन हो जाता था। यहां लोग कॉलेज में लेक्चरर बनने के लिए हजारों-लाखों रुपए की रिश्वत देने को तैयार रहते थे यह जानते हुए भी लेक्चररों को वेतन कई-कई महीनों से नहीं मिल रहा। कारण जानकर कम से कम मैं तो दंग ही रह गया था। जितनी अच्छी नौकरी होगी दहेज उतना ही ज्यादा मिलेगा। वेतन मिले न मिले उसकी परवाह किसे थी।
यही वह राज्य था जहां लोग सडक़ें और घर केेेे पास की नालियां साफ करवाने के लिए कोर्ट की शरण लेते थे। वे स्वयं अपने गली मोहल्लों की सफाई करने में शर्म महसूस करते थे और सफाई कर्मचारी इसलिए काम नहीं करते थे क्योंकि उन्हें समय पर कभी वेतन मिलता नहीं था। युवा राज्य से बाहर जाकर भले ही रिक्शा चलाते थे, लेकिन अपनें गांव में खेतों में काम करने के लिए वे भी नौकर रखते थे। धोती-कुरते में ठेठ भोजपुरी व्यक्ति को देखकर आप नहीं कह सकते थे कि वे किसी ब्रिटिश या अमेरिकी यूनिवर्सिटी से पीएचडी करके आए हैं।

----------------------


Wednesday, 1 January 2014

ये झाड़ू वाले चाहते क्या हैं ?

राकेश माथुर




नाम रखा है आम आदमी पार्टी, टोपी पहन कर ठीक उसी तरह बताते हैं जैसे एक ऋषि हमेशा अहम ब्रहास्मि कहा करते थे। अभी दिल्ली में सरकार संभालते ही कुछ करने की कोशिश की है नतीजा तीन महीने बाद आएगा। फिलहाल तीन महीने तक असर नहीं पड़ेगा क्योंकि शीला दीक्षित सरकार खजाना भरा हुआ छोड़ कर गई है। अन्ना के बाद केजरीवाल को नेता मानने वालों ने अन्य राज्यों से भी हुंकार भरनी शुरू कर दी है। इससे कांग्रेस पर तो असर पड़ा ही है भाजपा के प्रधानमंत्री की हालत भी कमजोर कर दी है। महज दो महीने की बात है, लोकसभा चुनाव की दस्तक हो जाएगी। कुमार विश्वास ने राहुल के खिलाफ और खुद केजरीवाल ने मोदी के खिलाफ मैदान में ताल ठोकने का फैसला किया है। लोकसभा चुनाव जीतने के लिए पार्टी ने दिल्ली में अपने किए वादे पूरे करने शुरू कर दिए हैं। लेकिन लोग उनकी भी खाल निकालने लगे हैं कि उससे आम आदमी को लाभ कम नुकसान ज्यादा होगा।

देश में दो तरह की परिवर्तनवादी विचारधारा चल रही है। एक केवल उन राज्यों में परिवर्तन चाहती है जहां कांग्रेस की या गैर भाजपाई सरकारें हैं। इन्हें वहां परिवर्तन नहीं चाहिए जहां पहले से भाजपा की सरकारें हैं। वहां इनका दावा है कि जनता ने भाजपा को वोट दिए हैं इसलिए भाजपा की सरकारें हैं। ये भूल जाते हैं कि जहां गैर भाजपाई सरकारें हैं, वे भी वहां की जनता की चुनी हुई हैं। अपने आप वे नेता सत्ता की कुर्सी पर आकर नहीं बैठ गए। कल तक बिहार में सब ठीक था लेकिन जैसे ही नीतीश ने भाजपा से मुंह मोड़ा वहां सब गलत होने लगा। कोई पूछे कैसे, तो जवाब है भाजपा जो सत्ता में नहीं रही। गांधी मैदान में शांति के मसीहा की प्रतिमा के सामने पड़े शव उस हिंसा की गवाही दे रहे थे जिससे केवल एक व्यक्ति को लाभ हुआ, उसकी सुरक्षा बढ़ा दी गई, उसके भाषण सुनने आने वालों की जामा तलाशी शुरू हो गई। इससे पहले भारतीय लोकतंत्र में ऐसा इंदिरा गांधी और राजीव गांधी या बिहार में ललित नारायण मिश्र की हत्या के बाद भी नहीं हुआ था।

खैर, बात झाड़ू वालों की चल रही थी। उनके पहले मुख्यमंत्री ने अपनी सुरक्षा तो लौटा ही दी, लाल बत्ती पर भी बैन लगा दिया। ये अलग बात है कि अब सादी वर्दी में उनकी सुरक्षा में तैनात जवानों पर खर्च बढ़ गया है। वे उत्तर प्रदेश में रहते हैं और दिल्ली की सरकार चलाते हैं। हरियाणा में वे हुंकार भर चुके हैं। मध्य प्रदेश में कांग्रेस के नाकारापन का जवाब देने के लिए व्यापमं सहित कई घपलों, घोटालों के विरोध में उन्होंने भूख हड़ताल शुरू कर दी है। गुजरात में भाजपा के बड़े विधायक रहे कनुभाई आम आदमी पार्टी में शामिल हो गए। यानी इस झाड़ू ने पूरे देश में हड़कंप मचा दिया है।
क्षेत्रीय दलों की सरकारों को भी सोचना पडेगा। परकाश सिंह बादल हों, नवीन पटनायक हों, नीतीश कुमार हों या अखिलेश। सब एक लाइन में। जय ललिता को तोड़ अभी नहीं निकल पाया है क्योंकि झाड़ू वाले बाबा के पास दो हथियार नहीं कश्मीर और तमिल मामलों से निपटने के। अम्मा तमिल मुद्दे को भुनाकर तमिलनाडु की सभी 39 सीटें जीतने के चक्कर में है, कलईनार की पार्टी को उनकी बेटी कणि और नेता राजा ही काफी हैं डुबोने के लिए। कांग्रेस दिल्ली में आज तक उन्हीं की करतूतों के लिए गाली खा रही है।
झाड़ू असल में सत्तारूढ़ दलों को नुकसान ज्यादा पहुंचाएगी। चाहे गुजरात, मध्यप्रदेश छत्तीसगढ़ में भाजपा हो या महाराष्ट्र में कांग्रेस-एनसीपी और हरियाणा, कर्नाटक, आंध्र, असम में कांग्रेस। उत्तर पूर्व का कोई कुछ ठीक से नहीं कह सकते। वहीं एक राज्य है जिसमें विपक्ष नाम की कोई चीज ही नहीं है। उस राज्य के सारे विधायक और सांसद सत्तारूढ़ दल के हैं। वहां झाड़ू का चलना मुश्किल है। 

ये मुद्दे साफ करने होगे झाड़ू वाले बाबा को 

-कश्मीर के बारे में क्या रुख है
-पाकिस्तान के बारे में क्या चाहते हैं
-अगर हर मामले पर जनमतसंग्रह करवाना चाहते हैं तो क्या पाकिस्तान की इच्छानुसार कश्मीर में भी करवाएं क्या (उनके नेता हां बोलकर सरे आम पिट चुके हैं)
-आतंकवाद पर क्या कहना चाहते हैं
-सिमि, बजरंग दल, विहप सरीखे कट्टरपंथियों के बारे में क्या राय है
-अल्पसंख्यकों (केवल मुसलमान नहीं जैन, सिख, ईसाई, बौद्ध आदि तथा जाट गूजर आदि) के बारे में क्या राय है।
-पूरे देश में बिजली-पानी मुफ्त देंगे क्या (हां तो कितना)
-विदेश पूंजी निवेश के बारे में क्या राय है
-देशी अमीरों पर टैक्स लगाएंगे या रियायत देंगे
-युवाओं को रोजगार देंगे या रोजगार भत्ता
-अस्थायी सरकारी कर्मचारियों को स्थायी करेंगे (पैसा कौन देगा- जनता और अमेरिका के भरोसे तो रह नहीं सकते)
-देश में कोयला भरा पड़ा है...कैसे, किसे क्यों लूटने दोगे
-कर्नाटक, मध्य प्रदेश और राजस्थान के खनिज का क्या करोगे
-अपने अपने एनजीओ के अलावा दूसरों के एनजीओ को भी कुछ दोगे या खुर्शीद के एनजीओ जैसे छोटे -मोटे मुद्दे बना कर पन्ने पन्ने भरवा दोगे
-ये वाड्रा वाला मामला खोलोगे तो भूषणजी महाराज की करतूतें भी खोलोगे या नहीं

सवाल तो बहुत हैं जमाने में, सत्ता में आने से पहले इनके जवाब भी जरूरी हैं। यह कहने से काम नहीं चलेगा कि सरकार मेरी नहीं जनता की है। भइए मोटे वेतन भत्ते आपको मिलेंगे जनता को नहीं। बड़े बड़े पैसे वाले अपनी परियोजनाएं पास करवाने आपके पास आएंगे जनता के पास नहीं
कुछ न कुछ तो बताना ही होगा। आखिर नमो नमस्ते बारंबार की जगह झाड़ू महाराज की जय कोई बोले तो क्यों बोले