क्या चाहता है मीडिया और विपक्ष /
राकेश माथुर//
(मुंबई हमले 26/11 के तत्काल बाद लिखा मेरा एक लेख, जिसे मैने सभी प्रमुख संपादकों को भेजा था (पढ़ने के लिए छपने के लिए नहीं) लेकिन किसी ने जवाब देना मुनासिब नहीं समझा..
पता नहीं आज भी यह प्रासंगिक है या नहीं... अब आप बताएं)
मुंबई पर आतंकी हमले ने लगता है हर किसी को अपनी रोटी सेंकने और देश का मनोबल तोडऩे का लाइसेंस दे दिया है। सारे टीवी न्यूज चैनलों ने आतंकियों से लोहा लेने गए कमांडो को लाल घेरे में दिखा दिखा कर बताया कि हमारे जांबाज कमांडो यहां छिपे हैं आतंकियों देख लो हम तुम्हें दिखा रहे हैं, इन्हें निशाना बना लो। ऐसे समय में उन्हें शायद अपनी निजी बहादुरी पर गर्व था कि हमें सब कुछ दिखाने का लाइसेंस हासिल है। क्या एसे पत्रकारों को गोली से नहीं उड़ा देना चाहिए जो देश और देशवासियों की जान से खिलवाड़ कर रहे हैं? क्या हम प्रतिदिन केंद्र सरकार या गृहमंत्रालय को नाकाम, नाकारा, बेकार किसी काम की नहीं बता कर पूरी दुनिया को यह संदेश नहीं दे रहे कि जिस सरकार को हमारे देशवासियों ने चुना वह नाकारा है। क्या मीडिया चाहता है कि वर्तमान केंद्र सरकार के सभी लोगों को फांसी दे दी जाए क्योंकि वह देश पर आतंकी हमले रोकने में विफल रही? मान लीजिए ऐसा हो गया जो दुनिया में कहीं नहीं हुआ, फिर उसके बाद क्या गारंटी है कि आतंकी हमले रुक जाएंगे?
हर चुनावी सभा में विपक्ष के नेता लालकृष्ण आडवाणी सहित भाजपा नेता कह रहे हैं कि हम सत्ता में आते ही आतंकवाद खत्म कर देंगे? क्या उनके पास जादू की छड़ी है या मान लिया जाए कि वे ही हमले करवा रहे हैं जिन्हें वे सत्ता पाते ही बंद करवा देंगे। अगर ऐसा है तो जयपुर धमाके, अहमदाबाद विस्फोट और बेंगलूर धामके क्या वहां की भाजपा सरकारों ने जानबूझकर होने दिए थे ताकि चुनाव में किसी एक पार्टी विशेष को निशाना बनाकर वोट बटोरे जा सकें? क्या वहां के मुख्यमंत्रियों का दायित्व नहीं था कि वे आतंकी हमले रोकें? किसी भी मीडिया चैनल ने तब क्यों नहीं किसी मुख्यमंत्री को दोषी ठहराया और अब क्यों महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री व उपमुख्यमंत्री को दोषी ठहराया जा रहा है? क्या यह जनता का सामूहिक ब्रेनवाश नहीं है? क्यों मुंबई हमलों के बाद प्रधानमंत्री द्वारा बुलाई गई सर्वदलीय बैठक में खुद को प्रधानमंत्री इन वेटिंग कहलाने वाले आडवाणी शामिल नहीं हुए? इसलिए कि इन्हें वोट मांगने के लिए राजस्थान की सभाओं में जाना था? फिर वे क्यों कहते हैं कि कांग्रेस वोट बैंक की राजनीति करती है? क्या कांग्रेस राजनीति में आलू छीलने आई है। कोई भी राजनीतिक दल राजनीति में इसीलिए है कि उसे राजनीति करनी है। यह बात हर सभा में या मीडिया के हर पन्ने पर या टीवी पर बता बता कर क्या आप खुद बेवकूफ नहीं बन रहे?
क्यों सुरक्षा एजेंसियों के मना करने के बावजूद आडवाणी, जसवंत सिंह व मोदी ताज में उस समय गए जब वहां आतंकियों से निपटने की मुहिम चल रही थी? क्या उन्हें डर था कि आतंकियों में से कोई उनका अपना न हो? या वे यह पता करने गए थे कि मालेगांव धमाकों के बहाने कथित हिंदू संगठनों पर शिकंजा कसने वाले एटीएस चीफ हेमंत करकरे कहीं जिंदा तो नहीं बच गए। ताज में मारे गए आतंकियों के हाथ में मौली (हिंदुओं द्वारा पूजा के समय कलाई पर बांधा जाने वाला धागा) तथा माथे पर तिलक था? कहीं इन दोनों नेताओं को यह डर तो नहीं था कि वे किसी हिंदू संगठन के न निकल आएं। वैसे, बाद में पकड़े गए आतंकी ने बता दिया कि रोली-मौली उन्होंने भारतीय नौसेना से बचने के लिए काम में लिए थे। तो क्या नौसेना के जवान हिंदू नजर आने वाले आतंकियों को छोड़ देते हैं?
शिवराज पाटील ने दिन में तीन बार कपड़े बदलें या दस बार? इससे आपकी सेहत पर क्या फर्क पड़ता है? आप यह साबित करें कि उन्होंने यह काम नहीं किया इसलिए आतंकी देश में घुसे? वे कह नहीं सकते क्योंकि शिवराज पाटील आधी रात को उस विमान में थे जिससे कमांडो दल मुंबई गया था। क्या किसी अखबार या टीवी चैनल ने यह खबर दिखाने या छापने की हिम्मत की कि शिवराज पाटील सुबह कमांडो दल के साथ मुंबई में थे। नहीं तो क्यो?
संसद की बैठकों, उचित मंचों, सर्वदलीय सभाओं से तो विपक्ष के ये नेता नदारद रहते हैं और सडक़ पर या टीवी पर जनता के सामने वोट मांगने के लिए जो मन में आता है कहते रहते हैं? क्या संसद पर हमले के बाद तत्कालीन गृहमंत्री (लालकृष्ण आडवाणी) ने नैतिकता के नाम पर इस्तीफा दिया था? क्या कंधार विमान अपहरण के समय तीन आतंकियों और फिरौती की मोटी रकम को कंधार छोडक़र आने के बाद तत्कालीन केंद्रीय मंत्री जसवंत सिंह को शर्म आई थी? क्या उन्होंने नैतिकता के नाम पर इस्तीफा दिया था?
क्या अफजल गुरु को फांसी देने से हर समस्या का हल निकल आएगा? क्या वही यह सब आतंकी हमले करवा रहा है? क्या हमारे देशवासी जानबूझकर अपने ऊपर हमले होने दे रहे हैं? क्या सरकारों के पास कोई जादुई चिराग है जो हर बात पर हम सरकारों को कोसते हैं, खासकर जब वह गैर भाजपाई हो? क्या हमने कभी अपने गिरहबां में झांक कर देखा? क्या हमने सोचा कि मीडिया और नेता मिलकर जनता को कमजोर बना रहे हैं। क्या भारत सरकार को कमजोर बता कर हम किसी महाशक्ति को हमले का न्योता नहीं दे रहे? क्या ऐसा ही कुछ बाबर के भारत पर आक्रमण और अंग्रेजों द्वारा भारत पर कब्जे के समय नहीं हुआ था? क्या हम फिर गुलाम बनना चाहते हैं?
आज अमिताभ बच्चन कहते हैं प्रशासन से उनका भरोसा उठ गया? शायद वे समझते ही नहीं कि प्रशासन कहते किसे हैं? इतने दिन तक जो वे चैन की नींद सोते रहे, उग्र प्रशंसकों से बचते रहे, घर, मकान जायदाद सुरक्षित रखे रहे, वे किसकी देन है? एक सेकंड लगा बोलने में कि प्रशासन पर भरोसा नहीं इसलिए पिस्तौल लेकर सोए? प्रशासन ने पिस्तौल छीन क्यों नहीं ली? प्रशासन को आप पर भरोसा था, लेकिन संकट के समय आप साथ देने को तैयार नहीं निकले? ऐसी कौम और ऐसे आदर्श देश को पतन नहीं बल्कि खात्मे की ओर ले जाते हैं और प्रशंसक ऐसे हैं जिन्होंने इनके मंदिर बनाकर देवता समझ रखा है क्योंकि पैसे की खातिर इन्होंने फिल्मों कुछ जोरदार डायलॉग बोल लिए जो किसी और के लिखे हुए थे। उन्हें कहना चाहिए था कि संकट के समय हम देश के साथ हैं। फिर देखते? या खामोश ही रहते, मुंह तो बंद रख सकते थे। बहुत से लोग नहीं बोले, उनसे किसी को कोई परेशानी नहीं। लता मंगेशकर ने कह दिया कि वे तीन दिन में 300 बार रोईं, क्या वे गिन रही थीं कि रोना कितनी बार आया। हमने तो जब देखा कि नरीमन हाउस की आया दो साल के इजरायली बच्चे को उठाकर सुरक्षित जगह पर भाग गई, हमें गर्व हुआ कि ऐसे लोग भी हैं हमारे देश में। बाद में अफसोस भी हुआ कि उस बच्चे के माता-पिता को वह नहीं बचा सकी। क्या किसी ने उस आया की बहादुरी की चर्चा तक की?
ज्यादातर अखबार, टीवी चैनल ऐसी टिप्पणियां कर रहे हैं मानो एक आतंकी हमले से पूरी दुनिया खत्म हो गई। अब कुछ करने को बचा ही नहीं। क्या प्रथम विश्व युद्ध, द्वितीय विश्वयुद्ध, हिरोशिमा-नागासाकी पर परमाणु बम विस्फोट, भारत में हुई सैकड़ों लड़ाइयों (कुरुक्षेत्र, राम-रावण युद्ध सहित) के बाद भी दुनिया चल नहीं रही है या दिख नहीं रही है?


क्या भाजपा गिना सकती है अपना कोई नेता जिसने आतंकवाद से मुकाबले में जान गवाई हो? फिर भी वह कहती है कि सत्ता मिलते ही आतंकवाद खत्म कर देगी। संसद पर हमला उसी के समय हुआ था, अजहर मसूद को उसी के मंत्री दूसरे देश तक सुरक्षित छोड़ कर आए थे। वही मसूद आज भारत में आतंक फैला रहा तो शर्म नहीं आ रही। या उससे कोई गुप्त डील हुई थी। जिस दाऊद का नाम वे लेते नहीं थकते, उसके खिलाफ पाकिस्तान को एक सबूत नहीं दे सके अपने छह-सात साल के कार्यकाल में? क्या मान लिया जाए कि वे दाऊद एंड कंपनी से मिले हुए हैं। यदि दिए तो क्या उनमें साहस नहीं था जो पाकिस्तान से दाऊद को भारत लाकर फांसी पर चढ़ा देते। या वे मानते थे मुंबई के वे विस्फोट तो कांग्रेस के समय हुए थे, हम क्यों उसके दोषियों को सजा दिलाएं। वे तो हर बार वोट दिलाने के काम आएंगे।
हम हर बात में पाकिस्तान का नाम लेते हैं? मुशर्रफ को जी भर कर कोसते रहे कि वही भारत पर हमलों की जड़ है? अब तो वह नहीं है फिर क्या हो गया? जरदारी तो सिंध के हैं, आडवाणी भी सिंध के हैं? दोनों पुराने पारिवारिक मित्र भी हैं, जरदारी के कहने पर आडवाणी बेनजीर पर लिखी एक पुस्तक के विमोचन पर जाने से ऐन वक्त पर मुकर गए थे, किताब में बेनजीर के खिलाफ कछ लिखा था। यह सब अखबारों में भी छपा। जरदारी आज पाकिस्तान के राष्ट्रपति हैं। क्या बार बार पाकिस्तान को दोष देने या हर आतंकी हमले के बाद पाकिस्तान से आर पार की लड़ाई लडऩे की चेतावनी देने वाली भाजपा फिर दोस्ती की बस लेकर कराची तो नहीं चली जाएगी? कराची में लाल कॉटेज (आडवाणी का जन्मस्थान)आज भी है।
आखिर बार बार पाकिस्तान को दोष देकर हम क्या करने वाले हैं कितनी सख्ती से निपटने वाले हैं? क्या कोई नेता बताएगा कि भारत पाकिस्तान पर कब्जा कर लेगा या वहां की सारी जनता को मार देगा ताकि कोई आतंकी पैदा ही न हो? विश्व के कई देशों के नक्शों में पूरा कश्मीर भारत के नक्शे से बाहर है कभी किसी कथित कश्मीर परस्त नेता ने यह मुद्दा कहीं उठाया? या सिर्फ जम्मू लेकर खुश रहेंगे भाजपाई नेता, जैसा छपा है कि जसवंत सिंह के समय कोई फार्मूला निकला था पाकिस्तान से बातचीत मे? क्या वाकई ऐसा कुछ था? तब क्यों नहीं सार्वजनिक किया गया वह फार्मूला? क्या शेष कश्मीर मुसलमानों का है इसलिए पाकिस्तान को बेच देना था? क्यों नहीं भाजपा का कोई नेता बताता कि आखिर पाकिस्तान के साथ किया क्या जाए? या ये लोग सिर्फ पाकिस्तान पाकिस्तान चिल्ला कर सत्ता हासिल करना चाहते हैं? क्यों नहीं कोई कांग्रेसी नेता इनसे यह सवाल पूछता? जनता तो वही करेगी जो मीडिया या राजनेता उससे करवाएंगे। खुद को वह नाकारा समझ बैठी है? लगता है रोज की रोटी वह अपनी मेहनत से नहीं इन्हीं नेताओं के दम पर खाती है? क्यों न सोचे मीडिया ने उसे ऐसा बना दिया।
अब दोनों पाटील (केंद्रीय गृहमंत्री शिवराज पाटील और महाराष्ट्र के गृहमंत्री आरआर पाटील) ने इस्तीफा दे दिया तो कह रहे हैं यह तो बहुत पहले हो जाना चाहिए था। अरे, उसे फांसी पर लटका दो, लेकिन देश पर आए संकट का क्या यही हल है? बयानबाजी और सिर्फ बयानबाजी। हिम्मत है तो तारीखों को पलटो, इस्तीफा बैकडेट में मान लो, फिर ?
क्या है कोई जवाब।
जनता को चाहिए कि वह खुद सवाल बनाए और इन कथित नेताओं से एक साथ पूछें। इसमें किसी राजनीतिक दल को छोडऩे की जरूरत नहीं है। लेकिन ध्यान रहे, देश को सुरक्षित रखने के लिए हमें एक बेहतरीन सरकार की जरूरत है, बयानबाज नेताओं की नहीं। ऐसा हो सकता है कि हमें लगे कि सरकार कुछ नहीं कर रही, लेकिन असल में वह कुछ कर रही हो। खुद ताज होटल के मालिक रतन टाटा ने अमेरिकी मीडिया के सामने माना है कि उन्हें केंद्र सरकार से आतंकी हमले की चेतावनी मिली थी (वह भी सितंबर में), उन्होंने सुरक्षा कड़ी भी की थी, लेकिन जरा सी ढील होते ही नवंबर में यह हमला हो गया। इसे क्या माना जाए? खुद हमारी चूक या सरकार की चूक?
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सोचिए
क्या मीडिया भारत सरकार को नाकारा, कमजोर बताकर भारत को कमजोर और यहां के मतदाताओं को मूर्ख नहीं बता रहा है। क्या आपके घर में ताला भी सरकार लगाएगी? क्या आपको खुद चौकस नहीं रहना है? अगर आतंकी हमले के लिए महाराष्ट्र सरकार दोषी है तो राजस्थान व गुजरात में हुए आतंकी हमलों के लिए केंद्र सरकार कैसे दोषी हो गई? अगर सबके लिए केंद्र सरकार दोषी है तो राज्य सरकारों के होने का क्या मतलब है? पाकिस्तान आतंकियों को प्रशिक्षित कर रहा है यह बार बार कहने का क्या मतलब है? आप पाकिस्तान को कैसी चेतावनी देना चाहते हैं? देश के भीतर गुंडागर्दी व डरा-धमका कर काम निकलवाने वालों को क्या आप इस आतंकवाद के लिए दोषी नहीं मानते? क्या धर्म (धर्म कोई भी हो) के नाम पर सेना बनाने वाले भावी आतंकी पैदा नहीं कर रहे?
जवाब मिले तो मुझे भी बताइए
राकेश माथुर