Monday, 27 January 2014

बिहार से पहला इंटरव्यू..


राकेश माथुर™




मैं पहली बार बिहार 1986 में आया था। तब कांग्रेस का शासन था और झारखंड अलग राज्य नहीं बना था। नवभारत टाइम्स यानी नभाटा का पटना संस्करण शुरू होने  वाला था। मैं जयपुर में था। नभाटा जयपुर से शुरू हो चुका था, लेकिन मैंने उसमें जाने से इनकार कर दिया था। राजेंद्र माथुर तब नभाटा के संपादक थे। उन्होंने मुझसे कहा पटना चलो। वहां से संस्करण शुरू हो रहा है। पटना यानी बिहार..नाम सुनते ही दिल कांप गया था। दो साल पहले चंडीगढ़ का एक अच्छा ऑफर महज इसलिए ठुकरा दिया था कि वह समय और स्थान पत्रकारों के लिए खतरनाक था। मेरी दुविधा, अपने पिता का अकेेला बेटा (मां बचपन में ही छोड़ गई थी)। दुविधा में देखकर माथुर साहब ने पूछा क्या बात है। वे बेहद सरल स्वभाव के थे। मैंने कह दिया बिहार बहुत हिंसा वाली जगह है, वहां तो खतरा बहुत है। बिहार के बारे में तब मेरे यही विचार थे। माथुर साहब हंसे..बोले पटना एक राज्य की राजधानी है। ऐसा नहीं कि वहां लाशें बिछी रहती हैं। नई जगह है पत्रकारिता का खजाना है। बहुत ना नुकुर के बाद मैंने पिताजी से बात की। उन्होंने कहा नई जगह है देख आओ। न जमे तो लौट आना। मैं बुध पूर्णिमा के दिन पटना पहुंचा, सरकारी छुट्टी थी इसलिए पहुंचने का टेलिग्राम घर नहीं भेज सका। तब मोबाइल फोन नहीं थे। ट्रंक काल बुक करवाना पड़ता था। उसके बाद मैं नौ साल पटना में रहा। यहीं प्यार भी हुआ, ब्याह भी और दो बच्चे भी।
वाकई अद्भुत राज्य है बिहार। ऐतिहासिक दृष्टि से बिहार को खोजना, तलाशना और तराशना सदियों से जारी है। भारत का ज्यादातर ऐतिहासिक खजाना यहीं है। बीच में बिहार एक ऐसा राज्य हो गया था जिसे लोग अपमान के रूप मेंं ज्यादा याद करते थे तब शत्रुघ्न सिन्हा ही एकमात्र व्यक्ति थे जिन्होंने खुद को बिहारी बाबू कहलवा कर बिहार के गौरव को कायम रखा। जेपी मूवमेंट से निकले लालू प्रसाद यादव ने कहा था वे 20 साल तक मुख्यमंत्री रहेंगे। 15 साल रहे जब हटना पड़ा तो निरक्षर पत्नी को मुख्यमंत्री बना दिया। पांच साल राबड़ी देवी ने राज किया। लालू राज की एक बात और याद दिला दें। टाइम्स ऑफ इंडिया के संपादक थे उत्तम सेन गुप्ता। एक दिन फ्रेजर रोड पर दफ्तर के सामने ही किसी ने उन पर गोली चला दी। जीवट वाले उत्तम दा ने गोली चलाने वाले की गर्दन पकड़ ली थी। घटना के थोड़ी ही देर मुख्यमंत्री लालू प्रसाद दफ्तर पहुंचे। सभी पत्रकारों ने उन्हें घेर लिया। मैंने भी काफी कुछ कहा। पत्रकारों की सुरक्षा की मांग की। लालू का जवाब था डरोगे तो पत्रकारिता कैसे करोगे। बाद में चीफ रिपोर्टर ने बताया कि लालू प्रसाद मेरे बारे में पूछ रहे थे कि ये जो बहुत हिंदी छांट रहा था कौन था। मुझे भोजपुरी आती नहीं थी।
शुरू में बहुत अजीब लगता था। तब डाक और सिटी एडीशन निकला करते थे। दोनों के बीच कुछ समय होता था इसलिए स्टेशन तक चाय पीने चले जाते थे। अच्छा लगता था महावीर मंदिर के सामने बस स्टैंड और बस कंडक्टरों की यात्रियों को बुलाती सुर में चिल्लाती आवाजें। देर रात दफ्तर से बाहर निकलते तो पुलिस वाले जीप लेकर बगल में आ जाते। कहते, आप लोग रात में बाहर मत निकला करो कुछ भी हो सकता है। हमें कहना पड़ता हमारा तो काम ही रात का है। कंपनी की कार घर छोड़ती थी, इसलिए ज्यादा परेशानी नहीं थी। रोज सुबह बांसघाट से नाव पकड़ कर सूर्योदय देखते हुए नदी के उस पार जाते और घंटे-आधा घंटे रुक कर लौट आते। तब नाव वाला दस रुपए लेता था। नदी का इतना चौड़ा पाट मैंने पहली बार पटना में ही देखा था।
पटना जैसे शहर में केवल बेली रोड से डाक बंगला चौराहा और रेलवे स्टेशन से गांधी मैदान। ज्यादा हुआ तो गोलघर। बस यही देखकर कोई लौट जाता तो पटना बहुत अच्छा था। तब न इतने अपार्टमेंट थे न मॉल। एंबुलेंस के पीएमसीएच तक पहुंचने के दौरान ट्रैफिक जाम से निकल पाए तभी जान बच सकती थी। 
तब से गंगा मैया ने भी रास्ता बदला और कोसी तो रास्ता बदलने के नाम पर कहर बरपा ही चुकी है। सत्ता में भी बहुत बदलाव हुए हैं। कांग्रेस के हाथ से सत्ता गई सो आज तक नहीं लौटी। लालू-राबड़ी का राज आकर चला गया। भाजपा ने सहयोग देकर नीतीश कुमार की सरकार बनवाई और सत्ता से हट गई। नीतीश बिना भाजपा के सरकार चला रहे हैं।
राजनीति के अलावा भी बिहार में बहुत कुछ है। यहां का गांधी मैदान इतना बड़ा है कि शायद ही कभी पूरा भरा हो। जेपी आंदोलन के समय भी नहीं और हाल कुछ समय पहले भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी की रैली के समय भी। हां, मोदी की रैली के समय शांति के मसीहा महात्मा गांधी की प्रतिमा के पास जैसे लोगों के प्राण गए वैसे विस्फोट पहले कभी गांधी मैदान में तो नहीं ही हुए।
बिहार में युवा शक्ति सबसे ज्यादा ताकतवर है। ऐसी शायद ही कोई राष्ट्रीय प्रतियोगिता परीक्षा हो जिसमें बिहार के युवा अव्वल न आए हों। 1991 में जब मैंने कैरियर गाइड निकालना शुरू किया युवाओं ने उसे हाथों-हाथ लिया। देश-दुनिया की ऐसे कोई प्रतियोगी परीक्षा नहीं थी जिसकी जानकारी उसमें न हो। उस समय बिहार की शैक्षिक स्थिति अच्छी नहीं थी। यहां के युवा उच्च शिक्षा के लिए सीधे दिल्ली का रुख करते थे। बिहार लोकसेवा आयोग की परीक्षाओं के परिणाम कभी कोर्ट रद्द कर देता था तो कभी परिणाम आने में इतनी देर होती थी कि तब तक परीक्षा में शामिल लोगों का दूसरी परीक्षओं में चयन हो जाता था। यहां लोग कॉलेज में लेक्चरर बनने के लिए हजारों-लाखों रुपए की रिश्वत देने को तैयार रहते थे यह जानते हुए भी लेक्चररों को वेतन कई-कई महीनों से नहीं मिल रहा। कारण जानकर कम से कम मैं तो दंग ही रह गया था। जितनी अच्छी नौकरी होगी दहेज उतना ही ज्यादा मिलेगा। वेतन मिले न मिले उसकी परवाह किसे थी।
यही वह राज्य था जहां लोग सडक़ें और घर केेेे पास की नालियां साफ करवाने के लिए कोर्ट की शरण लेते थे। वे स्वयं अपने गली मोहल्लों की सफाई करने में शर्म महसूस करते थे और सफाई कर्मचारी इसलिए काम नहीं करते थे क्योंकि उन्हें समय पर कभी वेतन मिलता नहीं था। युवा राज्य से बाहर जाकर भले ही रिक्शा चलाते थे, लेकिन अपनें गांव में खेतों में काम करने के लिए वे भी नौकर रखते थे। धोती-कुरते में ठेठ भोजपुरी व्यक्ति को देखकर आप नहीं कह सकते थे कि वे किसी ब्रिटिश या अमेरिकी यूनिवर्सिटी से पीएचडी करके आए हैं।

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