राकेश माथुर
दो प्रमुख समाचारों से किसी और का दिल दहला हो या न दहला हो, मेरा तो दहल गया। वर्ष 2014 के चुनावों से पहले जब भी कोई गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी से कोई सवाल करता तो उनका एक ही जवाब होता था - यह छह करोड़ गुजरातियों का अपमान है। इसे वर्ष 2019 में फिर से जीवित किया है, गुजरात के वर्तमान मुख्यमंत्री विजय रूपाणी ने। इस बार अंतर केवल इतना है कि गुजरातियों की संख्या बढ़ कर साढ़े छह करोड़ हो गई है।
दो मामले सामने आए हैं। पहले हम राजनीतिक मामले को देखें। गुजरात के मुख्यमंत्री रूपाणी ने राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को चुनौती दी कि हिम्मत है तो वे राज्य में शराबबंदी करके दिखाएं, जवाब में गहलोत ने कहा गुजरात में तो पूर्ण शराबबंदी है लेकिन अगर वहां शराब न मिले तो वे राजनीति छोड़ देंगे। रूपाणी ने इस बयान को साढ़े छह करोड़ गुजरातियों का अपमान बताया। यहां मैं बता दूं कि जब मैं पोरबंदर गया था तो वहां शराब के नशे में दो लोगों को नाली में लुढ़के देख मुझे भी आश्चर्य हुआ था। मुझे आश्चर्य में देख कुछ लोगों ने बताया कि साहेब ये तो आम बात है। पोरबंदर वही गांधीजी वाला। अब गहलोत ने कहा कि उन्होंने एक साल गुजरात में रहकर देखा है। हर बात पर कांग्रेस या दूसरे दलों के नेताओं को अपशब्द कहने वालों के बारे में जब कुछ कहा जाता है तो वे इसे सीधे राज्य या देश की अस्मिता से जोड़ देते हैं, मानो वही देश या राज्य हों। गांधी, जवाहरलाल के बारे में अपशब्द कहते समय यही बात वे याद नहीं रखना चाहते जबकि इन दोनों की इज्जत भारत से ज्यादा विदेश में है।
पिछले साल अखबारों में छपे आंकड़े देखें तो गुजरात में पानी का धंधा 7000 करोड़ रुपए का था जबकि शराब का धंधा 30,000 करोड़ रुपए का था। यह तो तब है जब राज्य में सरकार ने शराब बेचने और पीने पर पूरी तर प्रतिबंध लगा रखा है। दस साल में शराब की बिक्री 300 प्रतिशत बढ़ी है।
मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक
- छोटे गांवों से लेकर बड़े शहरों तक लोग सालभर में करोड़ों रुपए की शराब पी जाते हैं।
- रोज़ाना 11 से ज्यादा गाड़ियों से शराब पकड़ी जाती है। पिछले दो साल में 16,033 वाहन जब्त किए गए हैं।
- इन वाहनों से 3 लाख 13 हजार 642 लीटर देशी शराब, 90 लाख 22 हजार 406 बोतल विदेशी शराब और 20 लाख 29 हजार 908 बोतल बीयर पकड़ी जा चुकी है।
- बीमारी के बहाने शराब का परमिट लेने वालों की संख्या भी बढ़ रही है। 2011 में 22 हजार परमिटधारी थे, 2017 में इनकी संख्या बढ़ कर 42 हजार हो गई।
- सप्ताहांत में दमण-दीव और आबू में शराब पीने आने वालों में 40 प्रतिशत गुजरात के होते हैं।
-शराब की होम डिलीवरी कभी भी-कहीं भी
- पुलिस को शराब पकड़ने का टार्गेट दिया जाता है और पुलिस की छापेमारी भी कई बार फिक्स होती है जिसमें से कुछ की पोल पकड़े जाने वाले दूसरे लोग खोल देते हैं।
आवेदन करने वालों का आंकड़ा ः
44,958 सामान्य ग्रेजुएट
5727 पोस्ट ग्रेजुएट
196 टेक्निकल ग्रेजुएट
4832 बीई/बीटेक
आपको यह जानकर भी आश्चर्य हो सकता है कि 19 मेडिकल ग्रेजुएट्स ने चपरासी पद के लिए आवेदन किया था, जिनमें से 7 का चयन हुआ। 4,832 इंजीनियरिंग ग्रेजुएट्स ने आवेदन किया था जिनमें से 450 का चयन हुआ। 5,727 पोस्ट ग्रेजुएट्स में से महज 119 युवा चपरासी पद के लिए चुने गए। इससे भी ज्यादा आश्चर्य इस बात का रहा कि जजों की अदालत में चपरासी बनने के लिए ऐसे युवाओं ने भी आवेदन किया जो कानून में पोस्ट ग्रेजुएशन यानी एलएलएम कर चुके थे। यह वह डिग्री है जो उन्हें सीधे जज बनने के लिए भी आवेदन करने का पात्र बनाती है। अब गुजरात के मुख्यमंत्री नहीं कहेंगे कि यह साढ़े छह करोड़ गुजरातियों का अपमान है कि पढ़े-लिखे युवाओं की तुलना वे चपरासियों से कर रहे हैं। वही चपरासी जो 24 घंटे साहेब के घर में भी काम करता है और दफ्तर में भी। उससे चाय भी मंगवाई जा सकती है और सब्जी भी। साहेब चाहें तो जूते पालिश भी करवा सकते हैं। दफ्तर का निर्धारित काम तो करना ही है। इन पदों में चौकीदार, लिफ्टमैन, पानी पिलाने वाला, घरेलू सहायक और स्वीपर जैसे पद भी शामिल हैं।
लेकिन साहेब यह सरकारी नौकरी है, सरकार भले ही सभी सरकारी कंपनियां बेच दे, अदालतें तो सरकारी ही रहेंगी। वेतन भी ठीक-ठाक है - 30,000 रुपए महीना। अब अदालत है तो वहां ऊपर-नीचे कुछ न कुछ तो चलता ही होगा। आखिर सुप्रीम कोर्ट तक में जजों के फैसले इंटरनेट पर अपलोड करते समय सिर्फ एक शब्द "नहीं " हटाकर खेल किया गया था या नहीं, भले ही ऐेसा करने वालों को बाद में बर्खास्त कर दिया गया हो। आवेदन करने वालों की यह दलील भी माननी पड़ेगी कि साहेब सरकारी नौकरी है और ट्रांसफर होगा नहीं अपने घर में रहेंगे ऐश करेंगे। सही बात है। अब इन्हें शुभकामनाएं देने के अलावा कुछ बचना नहीं है। तो किसका अपमान और कैसा अपमान ?
लेकिन स्वाभिमान भी
दो प्रमुख समाचारों से किसी और का दिल दहला हो या न दहला हो, मेरा तो दहल गया। वर्ष 2014 के चुनावों से पहले जब भी कोई गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी से कोई सवाल करता तो उनका एक ही जवाब होता था - यह छह करोड़ गुजरातियों का अपमान है। इसे वर्ष 2019 में फिर से जीवित किया है, गुजरात के वर्तमान मुख्यमंत्री विजय रूपाणी ने। इस बार अंतर केवल इतना है कि गुजरातियों की संख्या बढ़ कर साढ़े छह करोड़ हो गई है।
दो मामले सामने आए हैं। पहले हम राजनीतिक मामले को देखें। गुजरात के मुख्यमंत्री रूपाणी ने राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को चुनौती दी कि हिम्मत है तो वे राज्य में शराबबंदी करके दिखाएं, जवाब में गहलोत ने कहा गुजरात में तो पूर्ण शराबबंदी है लेकिन अगर वहां शराब न मिले तो वे राजनीति छोड़ देंगे। रूपाणी ने इस बयान को साढ़े छह करोड़ गुजरातियों का अपमान बताया। यहां मैं बता दूं कि जब मैं पोरबंदर गया था तो वहां शराब के नशे में दो लोगों को नाली में लुढ़के देख मुझे भी आश्चर्य हुआ था। मुझे आश्चर्य में देख कुछ लोगों ने बताया कि साहेब ये तो आम बात है। पोरबंदर वही गांधीजी वाला। अब गहलोत ने कहा कि उन्होंने एक साल गुजरात में रहकर देखा है। हर बात पर कांग्रेस या दूसरे दलों के नेताओं को अपशब्द कहने वालों के बारे में जब कुछ कहा जाता है तो वे इसे सीधे राज्य या देश की अस्मिता से जोड़ देते हैं, मानो वही देश या राज्य हों। गांधी, जवाहरलाल के बारे में अपशब्द कहते समय यही बात वे याद नहीं रखना चाहते जबकि इन दोनों की इज्जत भारत से ज्यादा विदेश में है।
पिछले साल अखबारों में छपे आंकड़े देखें तो गुजरात में पानी का धंधा 7000 करोड़ रुपए का था जबकि शराब का धंधा 30,000 करोड़ रुपए का था। यह तो तब है जब राज्य में सरकार ने शराब बेचने और पीने पर पूरी तर प्रतिबंध लगा रखा है। दस साल में शराब की बिक्री 300 प्रतिशत बढ़ी है।
मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक
- छोटे गांवों से लेकर बड़े शहरों तक लोग सालभर में करोड़ों रुपए की शराब पी जाते हैं।
- रोज़ाना 11 से ज्यादा गाड़ियों से शराब पकड़ी जाती है। पिछले दो साल में 16,033 वाहन जब्त किए गए हैं।
- इन वाहनों से 3 लाख 13 हजार 642 लीटर देशी शराब, 90 लाख 22 हजार 406 बोतल विदेशी शराब और 20 लाख 29 हजार 908 बोतल बीयर पकड़ी जा चुकी है।
- बीमारी के बहाने शराब का परमिट लेने वालों की संख्या भी बढ़ रही है। 2011 में 22 हजार परमिटधारी थे, 2017 में इनकी संख्या बढ़ कर 42 हजार हो गई।
- सप्ताहांत में दमण-दीव और आबू में शराब पीने आने वालों में 40 प्रतिशत गुजरात के होते हैं।
-शराब की होम डिलीवरी कभी भी-कहीं भी
- पुलिस को शराब पकड़ने का टार्गेट दिया जाता है और पुलिस की छापेमारी भी कई बार फिक्स होती है जिसमें से कुछ की पोल पकड़े जाने वाले दूसरे लोग खोल देते हैं।
खैर, दूसरा मामला युवाओं से जुड़ा है, वह भी गुजरात के। जिस गुजरात के नागरिकों के अपमान की बात मुख्यमंत्रीजी कर रहे हैं, यह उन्हीं से जुड़ा है। खबर है कि देश के युवाओं की तरह गुजरात के युवा भी बेरोजगारी से जूझ रहे हैं और उनकी सुननी वाला कोई नहीं है। लगभग 20 साल से वहां भारतीय जनता पार्टी की सरकार है। वहां के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी गुजरात माडल के नाम पर प्रचार करके प्रधानमंत्री तक बन चुके हैं। ताजा खबर ये है कि गुजरात हाई कोर्ट में चपरासी पद की 1149 रिक्तियों के लिए आवेदन मांगे गए थे। आप कहेंगे ये तो अच्छी बात है मतलब नौकरियां मिल रही हैं। जी हां, ये तो अच्छी बात है, लेकिन जिनका चयन हुआ है उनके बारे में क्या आप नहीं जानना चाहेंगे। करीब 1 लाख 59 हजार 278 युवाओं ने आवेदन किए। चयन परीक्षा हुई। जिन्हें अदालतों में चपरासी के पद पर नियुक्ति के लिए चुना गया उनमें, 7 डाक्टर, 450 इंजीनियर और 543 अन्य ग्रेजुएट थे। न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता दसवीं पास थी। आयुसीमा थी 18 से 33 साल। आवेदन करने वालों में जज बनने की पात्रता रखने वाले एलएलएम यानी कानून की पोस्ट ग्रेजुएट डिग्रीधारी भी थे।
आवेदन करने वालों का आंकड़ा ः
44,958 सामान्य ग्रेजुएट
5727 पोस्ट ग्रेजुएट
196 टेक्निकल ग्रेजुएट
4832 बीई/बीटेक
आपको यह जानकर भी आश्चर्य हो सकता है कि 19 मेडिकल ग्रेजुएट्स ने चपरासी पद के लिए आवेदन किया था, जिनमें से 7 का चयन हुआ। 4,832 इंजीनियरिंग ग्रेजुएट्स ने आवेदन किया था जिनमें से 450 का चयन हुआ। 5,727 पोस्ट ग्रेजुएट्स में से महज 119 युवा चपरासी पद के लिए चुने गए। इससे भी ज्यादा आश्चर्य इस बात का रहा कि जजों की अदालत में चपरासी बनने के लिए ऐसे युवाओं ने भी आवेदन किया जो कानून में पोस्ट ग्रेजुएशन यानी एलएलएम कर चुके थे। यह वह डिग्री है जो उन्हें सीधे जज बनने के लिए भी आवेदन करने का पात्र बनाती है। अब गुजरात के मुख्यमंत्री नहीं कहेंगे कि यह साढ़े छह करोड़ गुजरातियों का अपमान है कि पढ़े-लिखे युवाओं की तुलना वे चपरासियों से कर रहे हैं। वही चपरासी जो 24 घंटे साहेब के घर में भी काम करता है और दफ्तर में भी। उससे चाय भी मंगवाई जा सकती है और सब्जी भी। साहेब चाहें तो जूते पालिश भी करवा सकते हैं। दफ्तर का निर्धारित काम तो करना ही है। इन पदों में चौकीदार, लिफ्टमैन, पानी पिलाने वाला, घरेलू सहायक और स्वीपर जैसे पद भी शामिल हैं।
लेकिन साहेब यह सरकारी नौकरी है, सरकार भले ही सभी सरकारी कंपनियां बेच दे, अदालतें तो सरकारी ही रहेंगी। वेतन भी ठीक-ठाक है - 30,000 रुपए महीना। अब अदालत है तो वहां ऊपर-नीचे कुछ न कुछ तो चलता ही होगा। आखिर सुप्रीम कोर्ट तक में जजों के फैसले इंटरनेट पर अपलोड करते समय सिर्फ एक शब्द "नहीं " हटाकर खेल किया गया था या नहीं, भले ही ऐेसा करने वालों को बाद में बर्खास्त कर दिया गया हो। आवेदन करने वालों की यह दलील भी माननी पड़ेगी कि साहेब सरकारी नौकरी है और ट्रांसफर होगा नहीं अपने घर में रहेंगे ऐश करेंगे। सही बात है। अब इन्हें शुभकामनाएं देने के अलावा कुछ बचना नहीं है। तो किसका अपमान और कैसा अपमान ?
लेकिन स्वाभिमान भी
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