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Thursday 20 February 2020

देश क्या है, जिसे नहीं बिकने देंगे और...क्या मैं भारत का नागरिक हूं ?

मैं देश नहीं मिटने दूंगा   
मैं देश नहीं बिकने दूंगा
मैं देश नहीं झुकने दूंगा
70 साल में कांग्रेस ने किया ही क्या है
70 साल में कांग्रेस ने देश को बर्बाद कर दिया
अब नया
क्या आप भारत के नागरिक हैं ?

ये प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ऐतिहासिक कथन हैं। यह तथ्य है कि देश की संपत्ति यानि सार्वजनिक उपक्रम एक-एक करके बेचे जा रहे हैं। यह विनिवेश के लक्ष्य की प्राप्ति की ओर बड़ा कदम है। विनिवेश किसका भारतीय रेलवे का, हवाई अड्डों का, सार्वजनिक उपक्रमों का। देश अगर इनसे मिल कर नहीं बनता तो...क्या नागरिकों से बनता है ? तो बताइए देश का नागरिक कौन है...वही जिसके पास आधार कार्ड है...जी नहीं। वही जिसके पास वोटर आईडी है..जी नहीं।  वही जिसके पास आयकर विभाग का पैन कार्ड है...जी नहीं। वही जिसे देख कर दूसरे देशों में हमें भारतीय माना जाता है यानी पासपोर्ट...जी नहीं...। यह जी नहीं, भारत के गृहमंत्री अमित शाहजी ने कहा है।

तो भारतीय नागरिक है कौन ?..पता नहीं अभी तक तय हुआ किस कागज के आधार पर भारत की नागरिकता तय की जाएगी। नागरिकता एनआरसी यानी नेशनल रजिस्टर आफ सिटीज़नशिप के आधार पर तय होगी। भारत में दशकों से रहने वाले किसी व्यक्ति का नाम यदि सरकारी अफसरों ने इस रजिस्टर में दर्ज कर लिया तो वह भारत का नागरिक अन्यथा आप आधार, वोटरआईडी, पैन कार्ड, पासपोर्ट लेकर घूमते रहिए आपको घुसपैठिया माना जाएगा भले ही आपके पुरखे सदियों से इसी भारत भूमि पर रहते आए हों।

लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने रामलीला मैदान में बड़े गुस्से में विपक्ष को ललकार कर कहा था कि जब से उनकी सरकार बनी है एनआरसी शब्द तक पर कोई चर्चा नहीं हुई। यह अलग बात है कि उनके गृहमंत्री अमित शाह जी ने संसद में क्रोनोलाजी बताई थी और कहा था एनआरसी केवल बंगाल में नहीं पूरे देश में लागू होगी। प्रधानमंत्री के बयान के बाद से वे खामोश हैं। उधर, एनआरसी असम में लगभग पूरी हो चुकी है और भारत का ही एक राज्य है। वहां एनआरसी आने से पहले कहा गया था कि असम में ढाई करोड़ घुसपैठिए हैं..फिर कहने वाले को पता चला कि राज्य की कुल आबादी ही करीब तीन करोड़ है। फिर एनआरसी हुई, करीब 19 लाख लोग एनआरसी से बाहर हो गए। राज्य में भाजपा की सरकार हिंदुओं के नाम पर बनी थी इस सूची से बाहर हुए लोगों में 16 लाख हिंदू हैं। अब तो चक्कर पड़ गया। जिनके वोटों से जीते, सरकार बनाई वही लोग भारत के नागरिक साबित नहीं हो सके।

तब रास्ता निकाला गया..सीएए का। यानि नागरिकता संशोधन कानून। नागरिकता कानून तो 1955 में ही लागू हो गया था। संशोधन कानून का विरोध हुआ तो प्रधानमंत्री और गृहमंत्री ने डंके की चोट पर कहा यह कभी वापस नहीं होगा, हम एक इंच पीछे नहीं हटेंगे। देश भर में विरोध प्रदर्शन होने लगे इस सीएए के खिलाफ।
तो फिर सीएए क्या है जिसका अचानक विरोध होने लगा वह भी संसद के दोनों सदनों से पारित होने और राष्ट्रपति के दस्तखत के बाद नोटिफिकेशन जारी होने के बाद ?  सीएए यानि नागरिकता संशोधन कानून- 2019। कुल दो पन्नों का यह नागिरकता संशोधन कानून सत्तारूढ़ पार्टी भाजपा ने नेताओं के मुताबिक किसी भारतीय की नागरिकता छीनने का कानून नहीं हैं, विपक्ष इसके बारे में भ्रम फैला रहा है। खुद केंद्रीय गृहमंत्री, भाजपा के सभी सांसद, मुख्यमंत्री और विधायक देशभर को यह चिल्ला चिल्ला कर बता रहे हैं। इनमें से कोई भी इसके प्रावधानों का जिक्र नहीं कर रहा। केवल यह कह रहे हैं कि यह पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश में धार्मिक उत्पीड़न के शिकार हिंदू, बौद्ध, जैन, पारसी व ईसाई लोगों के लिए हैं। टीवी चैनलों पर बहस हो रही है कि सीएए का विरोध करने वाले नहीं चाहते कि पाकिस्तान में धार्मिक उत्पीड़न के शिकार हिंदुओं को भारत की नागरिकता मिले। प्रधानमंत्री ने तो यहां तक कह दिया कि कांग्रेस में 70 साल में  कानून लाने की हिम्मत नहीं थी।

हकीकत क्या है ?

सीएए यानि नागरिकता संशोधन कानून। मतलब कोई नागरिकता कानून पहले से है जिसमें संशोधन किया गया है। जी हां, यह 1955 में लागू हुए मूल भारतीय नागरिकता कानून में संशोधन है।

1. सीएए में 6 धर्मों का उल्लेख है लेकिन मुस्लिम शब्द का उल्लेख नहीं है जबकि इससे पहले किसी भी धर्म का जिक्र नहीं था।
2. सरकार द्वारा कहा गया कि यह पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान जैसे इस्लामी देशों में अल्पसंख्यकों पर हो रहे धार्मिक रूप से उत्पीड़ित लोगों के लिए है।


a. दो पन्नों के इस संशोधन कानून में कहीं नहीं लिखा कि यह पाकिस्तान, बांग्लादेश या अफगानिस्तान से धार्मिक प्रताड़ना के कारण भारत आए लोगों को नागरिकता देने के लिए है।

b. पाकिस्तान और अफगानिस्तान घोषित इस्लामी देश हैं लेकिन बांग्लादेश 'गण प्रजातांत्रिक बांग्लादेश' है। यह दुनिया का आठवां सबसे अधिक आबादी वाला देश है। वहां की सरकारी भाषा बंगाली है। 2011 के आंकड़ों के मुताबिक 14,97,72,364 की आबादी में से 98 प्रतिशत बंगाली और दो प्रतिशत अल्पसंख्यक (चकमा, बिहारी, मामा,संथाल, म्रो, तन्चांग्या, बाम, त्रिपुरी, खूमी, कूकी, गारो और विष्णुप्रिया मणिपुरी) हैं। धार्मिक आधार पर बांग्लादेश में 89.5 प्रतिशत इस्लाम, 8.5 हिंदू, 0.6 प्रतिशत बौद्ध व 0.4 प्रतिशत ईसाई धर्म को मानने वाले हैं।

3. नागरिकता संशोधन कानून में लिखा है कि इन तीन देशों से आए 6 धर्मों के लोगों को मूल कानून में बताए 11 साल के बजाय 5 साल भारत में रहने पर ही नागरिकता दे दी जाएगी। ऐसा करने की जरूरत क्या है, यह किसी ने नहीं बताया।

4. सीएए में कहा गया है कि तीन देशों से आए 6 धर्मों के लोग अगर 31 दिसंबर 2014 तक भारत आ चुके थे तो उन्हें भारत की नागरिकता दी जाएगी। यह तारीख कैसे तय की गई यह कोई नहीं बता रहा।

5. इस संशोधन कानून में लिखा है कि इन तीन देशों के 6 धर्मों के लोग 31 दिसंबर 2014 तक चाहे अवैध रूप से भारत आए हों, चाहे पासपोर्ट-वीज़ा लेकर उन्हें नागरिकता दे दी जाएगी।

6. जिन लोगों को नागरिकता दी जानी है, उन पर चल रहे अवैध घुसपैठ या नागरिकता संबंधी या अन्य तरह के मामले कुछ किंतु परंतु के साथ हटा लिए जाएंगे या चलने दिए जाएंगे।

7. अब खास बात -  यह संशोधन कानून बंगाल ईस्टर्न फ्रंटियर रेगुलेशन -1873 के तहत घोषित इनर लाइन वाले राज्यों में लागू नहीं होगा। (यह याद रखें- 1873...1905 बंगाल विभाजन, 1947 अलग पूर्वी पाकिस्तान, 1972 बांग्लादेश),  असम, मेघालय, त्रिपुरा और मिज़ोरम के कबायली इलाकों में लागू नहीं होगा।

8. इसमें उल्लेख है कि जिन्हें पासपोर्ट कानून- 1920 के सेक्शन 3 के सब सेक्शन 2 के क्लाज़ c के तहत छूट मिली हुई है या 1946 के फारेनर्स एक्ट के तहत छूट मिली हुई है उन्हें अवैध आप्रवासी नहीं नहीं माना जाएगा यानि वे घुसपैठिए नहीं तन के साथ राजसाही खत्म हुई। फिर सोवियत कब्जे से तालिबान के कब्जे तक का पूरा इतिहास है। इधर,होंगे।

(यह याद रखें 1919 में तीसरे आंग्ल-अफगान युद्ध के बाद अफगानिस्तान ब्रिटिश शासन से आजाद हो गया,  अमानुल्ला खान की राजशाही आई, 50 साल बाद 1978 में ज़हीर शाह के प 1920 और 1946 के बाद 1947 में भारत का विभाजन हुआ, 1950 में भारत गणतंत्र बना और 1955 में नागरिकता कानून बना)

4 खास सवाल

1. विदेश से आए लोगों को 11 साल के बजाय केवल 5 साल में भारत की नागरिकता देने की जल्दबाजी क्या है


2, 31 अक्टूबर 2014 की डेडलाइन क्यों

3 1920 और 1946 के कानूनों का जिक्र क्यों जबकि 1947 में भारत आजाद हो चुका 1950 में भारत का संविधान बन चुका और 1955 में भारतीय नागरिकता कानून बन चुका

4, 18 73 के ईस्ट बंगाल नोटिफिकेशन का जिक्र क्यों जबकि 1905 में बंगाल का विभाजन हो चुका 1947 में पूर्वी बंगाल पूर्वी पाकिस्तान बन चुका और 1972 में पूर्वी पाकिस्तान बांग्लादेश बन चुका

Friday 18 October 2019

आइए नया इतिहास लिखें, लेकिन लिखेंगे क्या ?



केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने कहा है वक्त आ गया है जब इतिहास को नए नज़रिये से लिखा जाए। उन्होंने कहा कि सावरकर नहीं होते तो 1857 का स्वतंत्रता संग्राम इतिहास में दर्ज नहीं हो पाता। उनसे पूछा जा सकता है कि इतिहास कोई एक व्यक्ति बैठ कर लिख रहा था क्या ? अब अगर 1857 की घटना को 1883 में जन्मे व्यक्ति ने पहली बार बताया तो सुनकर हंसी आना स्वाभाविक है क्योंकि लाखों साल पहले जन्मे राजा राम की कहानी हम ऐेसे सुनाते हैं मानो वे घटनाएं हमारे सामने हुई। कार्ल मार्क्स ने 1857-59 के समय हुई घटनाओं को भारत के प्रथम स्वाधीनता संग्राम के रूप में लिखा था, और वह भी उसी समय, इसका पुख्ता रिकार्ड है। 1883 में सावरकर का जन्म हुआ और मार्क्स दुनिया छोड़ गए। मतलब मार्क्स ने मरने से पहले ही लिखा होगा यह भी तय है। सावरकर ने अगली सदी शुरू होने के बाद ही लिखा था
खैर, छोड़िए.


 इतिहास बदला जाना है.. स्वतंत्रता के आंदोलन के समय 1885 में राष्ट्रीय कांग्रेस का जन्म हुआ। 1925 में सांस्कृतिक संगठन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का। अब बताया जाना है कि कांग्रेस ने आजादी के लिए कुछ नहीं किया केवल आरएसएस ने किया। तब आरएसएस के संस्थापकों की किताबों में लिखे उस बयान का क्या करेंगे जिसमें लिखा है कि आरएसएस अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन में संगठन के रूप में शामिल नहीं होगा, जो शामिल होना चाहता है वह निजी हैसियत से शामिल हो सकता है। उस लिखे हुए का क्या होगा, जिसमें लिखा है कि हिंदू व आरएसएस के कार्यकर्ता अंग्रेजों से संघर्ष में अपनी ऊर्जा व्यर्थ न करें, बल्कि उसे बचा कर रखें ताकि स्वतंत्रता के बाद मुसलमानों से संघर्ष में काम आ सके। क्या अपने ही संस्थापकों की बातें झुठलाई जाएंगी।
क्या बताएंगे ? अंग्रेज भारत को 1947 में छोड़ गए थे, लेकिन भारत को स्वतंत्रता 2014 में मिली। जवाहरलाल नेहरू को अंग्रेज एजेंट बना कर गए थे और नरेंद्र मोदी देश के पहले चुने हुए प्रधानमंत्री थे। तब 1947 से 2014 के बीच हुई घटनाओं, चुनावों, संसद, सुप्रीम कोर्ट, सरकारी कंपनियों, बांधों, हवाई सेवा आदि के बारे में क्या बताओगे ? मान लिया संसद का नया भवन बन रहा है, सुप्रीम कोर्ट का भी नया भवन बन रहा है। लेकिन सरदार पटेल के बारे में क्काया बताओगे, जिनकी विशालकाय प्रतिमा चीन से बनवा कर लगाई गई है। भारत कैसे और कब बना, राज्य कैसे बने पुराने रजवाड़ों का क्या और कैसे हुआ, क्या बताओगे। सबका तो लिखित इतिहास मौजूद है। कश्मीर को भारत का हिस्सा कब से बताओगे, तो पाकिस्तान का क्या होगा, लाहौर किसने बनवाया था, गांधार कहां और कैसे चला गया, क्या ये सब इतिहास का हिस्सा नहीं होंगे।

एचआरडी या मानव संसाधन मंत्रालय देश का सबसे बड़ा और सबसे महत्वपूर्ण विभाग है। इसमें शिक्षा भी शामिल है और शिक्षा प्रणाली को क्या नया स्वरूप देना है वह भी शामिल है। देश के युवाओं को युग की जरूरतों के मुताबिक ढालने के लिए तैयार करना भी, सांस्कृतिक, शैक्षणिक, वैज्ञानिक जागरूकता बढ़ाना भी। शिक्षा आप समझते हैं..जैसी देंगे वैसे ही भावी पीढ़ियां बनेंगी। नए प्रधानमंत्री गुजरात में करीब 13 साल मुख्यमंत्री रहे हैं। वहां के शिक्षा का स्तर और पाठ्यपुस्तकों में तथ्यात्मक गलतियां सामने आती रही हैं।
खैर, वाजपेयी सरकार में एचआरडी मंत्री थे डा. मुरली मनोहर जोशी जो अच्छे खासे पढ़े लिखे हैं प्रोफेसर रहे हैं। उन्हें इस बार उनकी पार्टी ने किनारे  कर दिया। क्योंकि उन्होंने स्कूल चलें हम और सर्वशिक्षा अभियान तो चलाया  लेकिन स्कूल कालेजों के सिलेबस का भगवाकरण पूरा करने में नाकाम रहे। अब कोई भी ज्यादा पढ़ा लिखा व्यक्ति शिक्षा मंत्री बनेगा तो वो भारत के इतिहास और अतीत से ज्यादा खिलवाड़ नहीं कर सकेगा।


श्रीकृष्ण की गाथा केवल रासलीला से नहीं उनकी राजनीतिक चतुरता से भी भरी पड़ी है, लेकिन तब यह तो बताना ही पड़ेगा कि कैसे एक इंच जमीन के लिए (या पांच गांवों के लिए या अपने हक के लिए) भाई भाई से लड़े थे, अर्जुन तो हथियार उठाने को तैयार नहीं थे, उन्हें कृष्ण ने कैसे मनाया, तब गीता सार या श्रीमदभगवतगीता को कैसे समझाएंगे।
 यह तो बताना पड़ेगा जब भारत-भूमि पर मुसलमान नहीं आए थे तब लोग लड़ते क्यों थे, राजा एक-दूसरे पर हमला कैसे और क्यों करते थे। वो किस धर्म के होते थे। क्या फिर शैव, शाक्त, वैष्णव आदि आदि की लड़ाई की परतें उधड़नी बंद हो जाएंगी।
क्या प्राचीन वर्ण व्यवस्था और उससे उपजी कुरीतियों को इतिहास के पन्नों से हटा देंगे, तब राजा राम मोहन राय और सती प्रथा का उल्लेख कैसे करेंगे, राणी सती मंदिर का जिक्र करेंगे तो सती प्रथा आज की 21वीं सदी से 22वीं सदी में जाती जनता को कैसे सही बताएंगे। मध्य कालीन भारतीय इतिहास का कोई जानकार यह तथ्य नहीं बदल सकता कि बाबर भारत क्यों आया था, उसने क्या किया, मुगल साम्राज्य का अस्तित्व किताबों से खत्म नहीं किया जा सकता क्योंकि उसके अवशेष देशभर ही दुनियाभर में बिखरे पड़े हैं। अलाउद्दीन खिलजी की बाजार व्यवस्था, अकबर की जमीन नापतौल की व्यवस्था, कोस मीनार, सर्वधर्म समभाव, दीन ए इलाही को कैसे खत्म करेंगे। महाराणा प्रताप, महारानी लक्ष्मी बाई और उन्हीं के जैसे योद्धाओं की गाथा बताने के लिए यह तो बताना ही पड़ेगा कि उन्होंने संघर्ष किया किससे था। गोस्वामी तुलसीदास की रामचरित मानस लिखे जाते समय शासन किसका था।
आधुनिक काल में अंग्रेजों का भारत आना, भारतीय संस्कृति को बरबाद करना, सारा सोना लूट कर ले जाने वाला बताओगे तो सारे ज्योतिर्लिंग, कामाख्या पीठ, बद्री-केदार, कैसे बच गए, श्रीपद्मनाभमंदिर से निकले भारी भरकम सोने हीरे जवाहरात के बारे में क्या बताओगे। अंग्रेजों के राज में ये बच कैसे गए, कुतुब मीनार, ताज महल, लाल किला, प्राचीन महल, कैसे रह गए। फिर क्या बताओगे, माना पुष्पक विमान श्रीरामचंद्र के जमाने में था रावण के पास भी कुछ विमान थे जिनमें से एक में उसने सीतामाता का अपहरण कर लिया था, लेकिन यह तो बताना पड़ेगा कि देश का सबसे लंबा सड़क मार्ग शेरशाह सूरी ने बनवाया थे, रेलवे लाइनें भारत में अंग्रेजों ने बनवाई थीं।
 आधुनिक भारत में क्या बताएंगे..अंग्रेजों से लड़कर आजादी किसने हासिल की। शहीद भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, जलियांवाला बाग, तात्या टोपे, रानी लक्ष्मीबाई, मंगल पांडे के साथ आखिरी मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर का नाम भी लेना पड़ेगा। गांधी बाबा को दक्षिण अफ्रीका में ट्रेन से फेंक दिया गया था उसका बदला उन्होंने अंग्रेजों से लिया यह कह कर टाल नहीं सकेंगे। यह बताना पड़ेगा कि उस अधनंगे रहने वाले डेढ़ पसली के से आदमी ने छप्पन इंच का सीना न होते हुए भी अंग्रेजों की नाक में कैसे दम कर रखा था। वीर सावरकर की गाथा और उनकी किताबों के आदर्श बताते समय यह भी बताना पड़ेगा कि वे फ्रांस के बंदरगाह के पास जहाज से कूदे क्यों थे। और भी बहुत सी बातें हैं।

जैसे 1925 में आरएसएस बनने के बाद से उसके स्वयंसेवक कर क्या रहे थे। आजादी की लड़ाई में उनका अपना क्या योगदान था। जो लोग उस समय पुलिस में थे क्या उन्होंने आजादी के लिए लड़ रहे आंदोलनकारियों का साथ दिया था या अंग्रेजों के आदेश पर उन्होंनें आंदोलनकारियों पर लाठी-गोली चलाई थी। भड़कने की जरूरत नहीं सब किसी न किसी कोर्ट के रिकार्ड, किसी न किसी की डायरी में लिखा है। उस समय के गजट में लिखा है। सरकारी, निजी किताबों, डायरियों में दर्ज है। नई किताबें लिखवाने से उस अतीत को नहीं भुलाया जा सकता।
आजादी की लड़ाई के इतिहास में क्या कांग्रेस के नेताओं का योगदान भूल जाओगे, माना जवाहर नेहरू, या अन्य कांग्रेसियों को भूल जाओगे लेकिन जनसंघ कैसे जन्मा, जनसंघ या भाजपा के पुराने नेताओं ने अपनी राजनीति कैसे शुरू की, यह तो बताना पड़ेगा। भाखड़ा नंगल बांध से लेकर रावतभाटा परमाणु रिएक्टर, पहला परमाणु विस्फोट, भारत-पाक युद्ध, बंटवारे में तत्कालीन भाजपा नेताओं (तब भाजपा नहीं थी, लेकिन उसे बाद में बनाने वाले नेता और आरएसएस तो थे) का क्या योगदान था। यह तो बताना पड़ेगा। आज हर आदमी की जेब में मोबाइल फोन और लैपटाप या कम्प्यूटर कैसे पहुंचा, 2जी का घोटाला बताओगे तो यह बताना पड़ेगा कि फोन की दरें इतनी सस्ती कैसे रहीं।



हां, आर्यभट्ट, वराहमिहिर जैसे विद्वानों की जानकारी व्यापक स्तर फैलाई जा सकती है जो जरूरी भी है। यह बताया जा सकता है कि टेस्ट ट्यूब बेबी का प्रचलन घड़ों में संतान के जन्म के रूप में था, उस समय की अत्याधुनिक सर्जरी के तहत गणेश के सिर पर हाथी का सिर लगाया जाना था। यह अलग बात है कि आधुनिक भारत में एक वैज्ञानिक ने सुअर का दिल मनुष्य के शरीर में लगाया तो उसे प्रोत्साहित करने के बजाय उसकी इतनी छीछालेदर की गई कि छि सुअर का दिल..उसे आत्महत्या करनी पड़ी।
लेकिन भाजपा को ज्यादा पढ़े-लिखे शिक्षा मंत्री की शायद जरूरत नहीं है। क्योंकि वह हर कदम पर सवाल उठा सकता है। सवाल खड़े करने वालों के साथ क्या हो रहा है, यह नजर आ रहा है। प्रेस कांफ्रेंसों में भी। भाजपा के शिक्षामंत्री की शैक्षणिक योग्यता पर सवाल उठाने वालों को जवाब मिल रहा है..कांग्रेस की चाल है..सोनिया की शिक्षा देखो, बताओ राहुल कहां तक पढ़े हैं। मानो सवाल उठाने वाले सब कांग्रेसी ही हैं। अगर हैं तो कांग्रेस के शासन के प्रधानमंत्री और एचआरडी मंत्री की शैक्षणिक योग्यता देख लो। जवाब है उन्होंने कौन सा तीन मार लिया। जीडीपी, ग्रोथ रेट पर चर्चा से पहले उसी अवधि में आपको देखना पड़ेगा कि दुनिया के सबसे ज्यादा पैसे वाले देश अमेरिका में आया सीक्वेस्टर संकट क्या था। कैसे दुनिया की कार सिटी कहलाने वाले शहर को दिवालिया घोषित होने के लिए कोर्ट का सहारा लेना पड़ा। क्यों यूरोप और अमेरिकी देशों में गंभीर आर्थिक संकट आया।
लेकिन इस सबके लिए पढ़ा लिखा होना भी जरूरी है। भावनाएं भड़काकर या दूसरों की लाई तकनीक का सहारा लेकर कम जानकार लोगों में महान बनना आसान है लेकिन जानकार लोगों (मोटी कमाई के लालच में पड़े उद्योगपतियों नहीं) को मूर्ख कब तक बना पाओगे। मकसद केवल चुनाव जीतना नहीं, उसके बाद काम करना भी है।

राकेश माथुर

Tuesday 8 October 2019

साढ़े छह करोड़ गुजरातियों का अपमान और जज की जगह चपरासी बनने को तैयार युवा

राकेश माथुर


दो प्रमुख समाचारों से किसी और का दिल दहला हो या न दहला हो, मेरा तो दहल गया। वर्ष 2014 के चुनावों से पहले जब भी कोई गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी से कोई सवाल करता तो उनका एक ही जवाब होता था - यह छह करोड़ गुजरातियों का अपमान है। इसे वर्ष 2019 में फिर से जीवित किया है, गुजरात के वर्तमान मुख्यमंत्री विजय रूपाणी ने। इस बार अंतर केवल इतना है कि गुजरातियों की संख्या बढ़ कर साढ़े छह करोड़ हो गई है।
दो मामले सामने आए हैं। पहले हम राजनीतिक मामले को देखें। गुजरात के मुख्यमंत्री रूपाणी ने राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को चुनौती दी कि हिम्मत है तो वे  राज्य में शराबबंदी करके दिखाएं, जवाब में गहलोत ने कहा गुजरात में तो पूर्ण शराबबंदी है लेकिन अगर वहां शराब न मिले तो वे राजनीति छोड़ देंगे। रूपाणी ने इस बयान को साढ़े छह करोड़ गुजरातियों का अपमान बताया। यहां मैं बता दूं कि जब मैं पोरबंदर गया था तो वहां शराब के नशे में दो लोगों को नाली में लुढ़के देख मुझे भी आश्चर्य हुआ था। मुझे आश्चर्य में देख कुछ लोगों ने बताया कि साहेब ये तो आम बात है। पोरबंदर वही गांधीजी वाला। अब गहलोत ने कहा कि उन्होंने एक साल गुजरात  में रहकर देखा है। हर बात पर कांग्रेस या दूसरे दलों के नेताओं को अपशब्द कहने वालों के बारे में जब कुछ कहा जाता है तो वे इसे सीधे राज्य या देश की अस्मिता से जोड़ देते हैं, मानो वही देश या राज्य हों। गांधी, जवाहरलाल के बारे में अपशब्द कहते समय यही बात वे याद नहीं रखना चाहते जबकि इन दोनों की इज्जत भारत से ज्यादा विदेश में है।
पिछले साल अखबारों में छपे आंकड़े देखें तो गुजरात में पानी का धंधा 7000 करोड़ रुपए का था जबकि शराब का धंधा 30,000 करोड़ रुपए का था। यह तो तब है जब राज्य में सरकार ने शराब बेचने और पीने पर पूरी तर प्रतिबंध लगा रखा है। दस साल में शराब की बिक्री 300 प्रतिशत बढ़ी है।
मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक
- छोटे गांवों से लेकर बड़े शहरों तक लोग सालभर में करोड़ों रुपए की शराब पी जाते हैं।
- रोज़ाना 11 से ज्यादा गाड़ियों से शराब पकड़ी जाती है। पिछले दो साल में 16,033 वाहन जब्त किए गए हैं।
- इन वाहनों से 3 लाख 13 हजार 642 लीटर देशी शराब, 90 लाख 22 हजार 406 बोतल विदेशी शराब और 20 लाख 29 हजार 908 बोतल बीयर पकड़ी जा चुकी है।
- बीमारी के बहाने शराब का परमिट लेने वालों की संख्या भी बढ़ रही है। 2011 में 22 हजार परमिटधारी थे, 2017 में इनकी संख्या बढ़ कर 42 हजार हो गई। 
- सप्ताहांत में दमण-दीव और आबू में शराब पीने आने वालों में 40 प्रतिशत गुजरात के होते हैं।
-शराब की होम डिलीवरी कभी भी-कहीं भी
- पुलिस को शराब पकड़ने का टार्गेट दिया जाता है और पुलिस की छापेमारी भी कई बार फिक्स होती है जिसमें से कुछ की पोल पकड़े जाने वाले दूसरे लोग खोल देते हैं।


खैर, दूसरा मामला युवाओं से जुड़ा है, वह भी गुजरात के। जिस गुजरात के नागरिकों के अपमान की बात मुख्यमंत्रीजी कर रहे हैं, यह उन्हीं से जुड़ा है। खबर है कि देश के युवाओं की तरह गुजरात के युवा भी बेरोजगारी से जूझ रहे हैं और उनकी सुननी वाला कोई नहीं है। लगभग 20 साल से वहां भारतीय जनता पार्टी की सरकार है। वहां के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी गुजरात माडल के नाम पर प्रचार करके प्रधानमंत्री तक बन चुके हैं। ताजा खबर ये है कि गुजरात हाई कोर्ट में चपरासी पद की 1149 रिक्तियों के लिए आवेदन मांगे गए थे। आप कहेंगे ये तो अच्छी बात है मतलब नौकरियां मिल रही हैं। जी हां, ये तो अच्छी बात है, लेकिन जिनका चयन हुआ है उनके बारे में क्या आप नहीं जानना चाहेंगे। करीब 1 लाख 59 हजार 278 युवाओं ने आवेदन किए। चयन परीक्षा हुई। जिन्हें अदालतों में चपरासी के पद पर नियुक्ति के लिए चुना गया उनमें, 7 डाक्टर, 450 इंजीनियर और 543 अन्य ग्रेजुएट थे। न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता दसवीं पास थी। आयुसीमा थी 18 से 33 साल। आवेदन करने वालों में जज बनने की पात्रता रखने वाले एलएलएम यानी कानून की पोस्ट ग्रेजुएट डिग्रीधारी भी थे। 

आवेदन करने वालों का आंकड़ा ः
44,958 सामान्य ग्रेजुएट
5727  पोस्ट ग्रेजुएट
196 टेक्निकल ग्रेजुएट
4832  बीई/बीटेक

आपको यह जानकर भी आश्चर्य हो सकता है कि 19 मेडिकल ग्रेजुएट्स ने चपरासी पद के लिए आवेदन किया था, जिनमें से 7 का चयन हुआ। 4,832 इंजीनियरिंग ग्रेजुएट्स ने आवेदन किया था जिनमें से  450 का चयन हुआ। 5,727 पोस्ट ग्रेजुएट्स में से महज 119 युवा चपरासी पद के लिए चुने गए। इससे भी ज्यादा आश्चर्य इस बात का रहा कि जजों की अदालत में चपरासी बनने के लिए ऐसे युवाओं ने भी आवेदन किया जो कानून में पोस्ट ग्रेजुएशन यानी एलएलएम कर चुके थे। यह वह डिग्री है जो उन्हें सीधे जज बनने के लिए भी आवेदन करने का पात्र बनाती है। अब गुजरात के मुख्यमंत्री नहीं कहेंगे कि यह साढ़े छह करोड़ गुजरातियों का अपमान है कि पढ़े-लिखे युवाओं की तुलना वे चपरासियों से कर रहे हैं। वही चपरासी जो 24 घंटे साहेब के घर में भी काम करता है और दफ्तर में भी। उससे चाय भी मंगवाई जा सकती है और सब्जी भी। साहेब चाहें तो जूते पालिश भी करवा सकते हैं। दफ्तर का निर्धारित काम तो करना ही है। इन पदों में चौकीदार, लिफ्टमैन, पानी पिलाने वाला, घरेलू सहायक और स्वीपर जैसे पद भी शामिल हैं।
लेकिन साहेब यह सरकारी नौकरी है, सरकार भले ही सभी सरकारी कंपनियां बेच दे, अदालतें तो सरकारी ही रहेंगी। वेतन भी ठीक-ठाक है - 30,000 रुपए महीना। अब अदालत है तो वहां ऊपर-नीचे कुछ न कुछ तो चलता ही होगा। आखिर सुप्रीम कोर्ट तक में जजों के फैसले इंटरनेट पर अपलोड करते समय सिर्फ एक शब्द "नहीं " हटाकर खेल किया गया था या नहीं, भले ही ऐेसा करने वालों को बाद में बर्खास्त कर दिया गया हो। आवेदन करने वालों की यह दलील भी माननी पड़ेगी कि साहेब सरकारी नौकरी है और ट्रांसफर होगा नहीं अपने घर में रहेंगे ऐश करेंगे। सही बात है। अब इन्हें शुभकामनाएं देने के अलावा कुछ बचना नहीं है। तो किसका अपमान और कैसा अपमान ?

लेकिन स्वाभिमान भी



Monday 21 November 2016

नोटबंदी के साइड इफैक्ट

इक्कीसवीं सदी के 16वें साल में भारतभूमि पर नरेश नरेंद्र दामोदर दास मोदी का राज था। उन्हें भारतभूमि के सवा सौ कोटि जन प्रेम से नमो कहते थे। उस जमाने में कागज की मुद्रा चलती थी। एक दिन अचानक उन्होंने आकाशवाणी और दूरदर्शन पर घोषणा की कि आज रात से 1000 और 500 रुपए की मुद्रा कागज का टुकड़ा हो गई। लोग सन्न रह गए क्योंकि बहुत से लोगों ने एटीएम नामक मशीन से मुद्रा निकाली थी, वह सभी एक हजार या पांच सौ रुपए के नोट थे। वो सब कागज का टुकड़ा हो गए वादा था काली कमाई को विदेश से लाने का। लेकिन लाने में विफल रहे तो ये चाल चली। भक्तगणों ने इसे बेहतरीन तरीका बताया क्योंकि उन्हें तो पहले ही पता था भगवन क्या करने वाले हैं। फंस गए तो बेचारे वो गरीब जो दिन भर 10,20, 50 या 100 रुपए कमाते थे और इतने सारे छोटे छोटे नोट कहां रखें सोच कर उन्हें 500 या 1000 रुपए के एक नोट में बदलवा कर रख लेते थे कि घर जाएंगे तो लेते जाएंगे। परदेस में ही वो कागज का टुकड़ा हो गए। इससे सात सदी पहले मुहम्मद बिन तुगलक नामक एक शासक हुआ था, उसने इसी तरह राजधानी बदलने का आदेश दिया था...बहुत फजीहत हुई थी। चमड़े के सिक्के भी चलवाए गए थे।
हां, नई व्यवस्था में लोगों से कहा गया कि वे पुराने नोटों को बैंकों में जाकर बदलवा सकते हैं। लोगों के पास बहुत से नोट थे। गृहणियां संकटकाल के लिए नोट संभाल कर रखती थीं। अचानक संकट आया देख लोग बौखला गए। वे नरेश का विरोध भी नहीं कर सकते थे क्योंकि हर जगह नरेश के भक्तगण लाठियां और शब्दबाण लिए खड़े थे। अचानक आदेश आया कि कोई भी चार हजार रुपयों से ज्यादा नहीं बदलवा सकता। दो दिन बाद  आदेश आया दो हजार रुपए से ज्यादा नहीं निकाल सकते। बाकायदा घोषणा कर दी गई कि लोग अपने पास की रकम बैंकों में जमा करवा सकते हैं, लेकिन अगर यह रकम ढाई लाख रुपए से ज्यादा हुई तो 200 प्रतिशत जुर्माना लगेगा।
बाबा रामदेवजी महाराज नेे कहा कि नरेश के फैसले का विरोध करने का मतलब राष्ट्रद्रोह। सवा सौ कोटिजन देशद्रोही घोषित हो गए। बैंकों के बाहर जो लाइन लगी है वो सभी कालाबाजारी, चोर, लुटेरे घोषित हो गए। लोग लाइनों में खड़े धक्के खा रहे हैं...अपने ही पैसे नहीं निकलवा पा रहे...कालाधन रखने वाले चैन की नींद सो रहे हैं...आम जनता को धक्के खाते और बेमौत मरते देख मजे ले रहे हैं...सत्ता पक्ष अहंकार के मद में चूर है...
जय हो बदलाव की...लेकिन ध्यान रहे जनता रहेगी तभी तक सत्ता भी कायम है...जनता नहीं रहेगी तो राज किसपर करेंगे....लाखों राजे-महाराजा आए और चले गए...जनता बची हुई है...बची रहनी चाहिए
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Friday 22 January 2016

अपने अपने रोहित


राकेश माथुर
कलियुग में गोरी चमड़ी वालों की कालगणना के अनुसार 21वीं सदी के सोलहवे साल के शुरू में भारतखंड के हैदराबाद में कुछ ऐसा हुआ कि सम्राट नमो के खिलाफ विरोधियों ने शंख फूंक दिया। नमो का पूरा मंत्रिमंडल खुद को और शिक्षा मंत्री को सही सिद्ध करने पर उतर आया। हैदराबाद विश्वविद्यालय के एक दलित छात्र को विश्वविद्यालय से निकाल दिया गया था क्योंकि उसने भारतीय सम्राट के राजनीतिक दल से जुड़ी छात्र इकाई से पंगा ले लिया था। इस कारण सत्ता दल जैसा सदियों से करता आया है, उसे देशद्रोही करार देने में कोई कसर नहीं छोड़ी। उसका नाम रोहित था। उसने फंदे पर लटक कर जान दे दी। लेकिन जान देने से पहले वह कुछ लिख गया जिससे पूरा भारतखंड हिल गया। भारतखंड में सदियों पहले कहा गया था कि शूद्रों को पढ़ाई लिखाई से दूर रखा जाए। उस परंपरा का पालन भी होता रहा। लेकिन भारतखंड पर गोरों के राज के बाद मिली आजादी और राजाओं के राज खत्म कर दिए जाने के बाद सत्ता में आने वाली कांग्रेस ने पुरानी परंपराओं पर पानी फेर दिया। उसने शूद्रों और पिछड़े लोगों के लिए विशेष आरक्षण की व्यवस्था कर दी। इसके बाद से शूद्र भी अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, पिछड़ा वर्ग, अति पिछड़ा वर्ग के नाम से सत्ता में भागीदार होने लगे। उन्हें शिक्षण संस्थानों में प्रवेश और रोजगार में आरक्षण मिलने लगा। मनुवादी विचारधारा वालों को यह रास नहीं आया।
तो हैदराबाद वाला रोहित इस आरक्षित वर्ग से था। लेकिन उसने विरोधियों को नीचा दिखाने के लिए आरक्षण का सहारा लेने से मना कर दिया और सामान्य वर्ग में शीर्षस्थ स्थान हासिल किया। इससे भी बहुत से लोग तिलमिला गए। एक बार एक याकूब मैमन नाम के आतंकी को फांसी दी गई। रोहित ने फांसी की सजा का विरोध करते हुए इसकी आलोचना की। बस उसके विरोधियों को मौका मिल गया। उन्होंने भारत सम्राट के मंत्री मंडल को लिखा, जवाब में मंत्री मंडल के सदस्यों ने विश्वविद्यालय को लिखा। मारपीट, देशद्रोही होने के आरोप लगे। अग्निपरीक्षा का जमाना नहीं था इसलिए विश्वविद्यालय के प्रभारी ने रोहित को उसके चार साथियों के साथ शिक्षण संस्थान से निकाल दिया। राजनीति तेज हुई तो कुछ पत्र लिख कर रोहित ने फंदे से लटक कर जान दे दी। कुछ लोग कहते हैं कि उसने लिखा कि ऐसे अपमान से तो बेहतर है कि सभी दलितों को मार दिया जाए। अगर उन्हें शिक्षण संस्थानों में प्रवेश दिया जाए तो साथ में मोटी रस्सी भी दी जाए जिसपर लटक कर वे जान दे सकें। सरकारी व्यवस्था के तहत उसे सरकार से कुछ छात्रवृत्ति मिलनी थी जो बंद कर दी गई ती। उसने लिखा वो राशि उसके घरवालों को दे दी जाए। कुछ रकम उसने किसी से उधार ली थी, उसने कभी मांगी नहीं लेकिन उसे दे दी जाए। लगता है गलत समय में जन्म ले लिया था।
ऐसा नहीं भारतवर्ष में रोहित की ही समस्या है। समस्याएं और भी हैं जमाने में। लेकिन सबको देखने की नजर एक ही हो गई है। अगर कोई केंद्रीय सरकार की नीतियों पर सवाल उठाता है तो उसे तत्काल देशद्रोही या सम्राट नमो विरोधी करार दे दिया जाता है। वहीं जिन प्रांतों में नमो समर्थकों की सरकारें नहीं हैं वहां की सरकारों की खुली आलोचना खुद सम्राट नमो और उनके मंत्रिमंडल के सहयोगी खुले आम करते हैं। भक्तगण तत्काल बताना शुरू करते हैं कि फलां ने विरोध किया वो देशद्रोही है..चुनी हुई सरकार की आलोचना करता है। ऐसे में वे भूल जाते हैं कि उनके सम्राट भी चुनी हुई सरकार को बुरा भला कहकर ही सिंहासन तक पहुंचे हैं।
इस काल खंड में शैव, वैष्णव, शाक्त, आदि की जगह हिंदू, मुसलमान, सिख, ईसाई आदि ने ले ली है। मुसलमानों ने अपना अलग देश बना लिया इसलिए वे शेष लोगों विशेषकर कथित उच्च हिंदुओं की नजर में पुराने जमाने के शूद्रों से भी नीचे के स्तर पर आ गए हैं। स्वयं को हिंदुऔं का बड़ा नेता बताने वाले दूसरे हिंदू नेताओं को मुसलमानों का नेता बताने लगे हैं, उन्हें मुसलामानों द्वारा बनाए गए देश पाकिस्तान भेजने की चेतावनी देने लगे। देश में असहिष्णुता की लहर चली तो सत्ताधारी लोग असहिण्णु होकर पूछने लगे कहां है असहिष्णुता। इसी बात पर मारकाट मच गई। बहुत से लेखकों और साहित्यकारों ने अपने सम्मान लौटा दिए, उस पर भी विवाद छिड़ा। उन्हें भी देशद्रोही कहा गया। कुछ अभिनेताओं के बयानों पर अराजकता भी हुई। लोग उनके देश-निकाले की मांग करने लगे। ऐसे अभिनेताओं को सरकारी योजनाओं से निकाल दिया गया। लेकिन उन पर क्या प्रभाव पड़ सकता है। वे तो अपनी फिल्मों में व्यस्त हो जाएंगे। इसलिए भक्तगणों ने उनके चलचित्र देने पर ही प्रतिबंध लगाने के आदेश जारी कर दिए हैं।
देखना है यह कहां तक जाता है। प्रभु। कलियुग के इस कालखंड में इसी भू-भाग के राजा-महाराजाओं के युद्ध, विधर्मियों के आक्रमण, सदियों के गैर हिंदुओं के शासन से भी ज्यादा साहित्यिक रस दिख रहा है। देखते जाइए आगे आगे होता है क्या…





Saturday 18 July 2015

नमो ही राम हैं नमो ही कृष्ण हैं..1

रामचंद्रजी और श्रीकृष्ण हर हिंदू के मन में भगवान का रूप ले चुके हैं। ऐसी शायद ही कोई जगह होगी जहां इनकी पूजा न होती हो। धर्मग्रंथ बताते हैं श्रीराम अयोध्या के राजा दशरथ के पुत्र थे और श्रीकृष्ण अपने मामा कंस को मार कर मथुरा के राजा बने थे। हिंदू धर्म में शायद ही कोई देवी-देवता हो जिसने किसी न किसी का संहार न किया है। हम नहीं कह सकते कि साहित्यकारों और भक्तों ने अपने भगवान को किस प्रकार प्रस्तुत किया। उनसे उस तरह लिखवाया गया अथवा उन्होंने स्वप्रेरणा से लिखा अथवा वास्तव में वैसा हुआ। इस संदेह का कारण भी है। 
कहा जाता है कि राजा रामचंद्र के बारे में पूरा विवरण वाल्मिकी ने लिखा रामायण या आदि रामायण या उसी तरह के ग्रंथ में। यह भी कहा जाता है कि वाल्मिकी एक दस्यु थे जिन्हें राजा रामचंद्र ने अभयदान दिया था। उसके बाद वाल्मिकी साधु बने और आश्रम में बैठ कर रामायण जैसा ग्रंथ लिखा। यह जिक्र नहीं मिलता कि संस्कृत उन्होंने सीखी थी या उन्हें पहले से आती थी। कुछ ऐसी बातें भी हैं जो आज के मनुष्य के गले आसानी से नहीं उतरतीं। जैसे क्या वाकई श्रीगणेश ने आकर वाल्मिकी के कहे अनुसार लिखा था। वो गणेश भगवान थे या कोई अधिक पढ़े लिखे विद्वान। या आज के जमाने के स्टेनो-टाइपिस्ट। कहना मुश्किल हैं। वैसे, कई अंधभक्त ऐसे भी हैं जो इस सब सवालों के उठाए जाने पर मारने को भी आ सकते हैं। लेकिन ऐसा वे ही करेंगे जो इस बारे में लीक पर चल रहे हैं और कुछ समझना नहीं चाहते या बढ़ते देश के साथ बढऩा नहीं चाहते।
माना जाता है कि राम विष्णु के सातवें अवतार थे और कृष्ण आठवें। यह भी माना जाता है कि कलियुग में भी विष्णु का एक अवतार होगा। यह भी कहा जाता है कि कलियुग में नाम लेना ही काफी होगा किसी चमत्कार की जरूरत नहीं। तो क्या कलियुग का देवता सामने आ चुका है? आज पूरे देश में एक ही नाम है..नमो..नमो..।
राजारामचंद्र और श्रीकृष्ण के राजपाट के क्षेत्र से भी कहीं व्यापक है इस नमो का राज। हिमालय से लेकर हिंद महासागर तक और पंज-आब से लेकर अरुण आचल तक। इस नमो की कीर्ति इसके जीवनकाल में ही सात समंदर पार तक फैल चुकी है। ऐसा केवल राजा रामचंद्र के समय हुआ था। वो भी इसलिए कि उनकी पत्नी का अपहरण हो गया था और लोग उनकी मदद को आए थे। यहां तो नमो खुद ही दूसरों की मदद को जा रहे हैं। चाहे नेपाल हो या म्यांमार, कजाकिस्तान हो या ताजिकिस्तान। अ ऐलिया (ऑस्ट्रेलिया) हो या अमरीका। हर जगह मोदी मोदी के नारे गूंजे और नमो नमो की पूजा ऐसे हुई मानो कोई देवता या भगवान अवतरित हुआ हो।
नमो की गूंज ऐसे ही नहीं है। उसने भी इस युग के राक्षस को परास्त किया है।
 भक्तगण उसका नाम कांग्रेस बताते हैं। भक्तों के अनुसार उसने 66 साल से भारतभूमि पर अंधकार का साम्राज्य कायम कर रखा था। भारतभूमि पर हिंदुओं से ज्यादा मुसलमान होने लगे थे। देश के दो टुकड़े करवा दिए थे। ब्रह्मांड में भारतभूमि को स्कैमइंडिया कहा जाने लगा था। कई लाख करोड़ मुद्राओं के घोटाले होने लगे थे। ऐसे में कट्टर हिंदू संगठन से जुड़े एक क्षत्रप के रूप में नमो उभरे। पूरी भारतभूमि पर उनका गुणगान होने लगा अंत में वर्ष 2014 में उन्होंने कांग्रेस नामक राक्षस को मार गिराया और दिल्ली के सिंहासन पर लोगों ने उन्हें सम्मानपूर्वक बिठाया। चतुर्दिक राज्यों के राजा उनके सिंहासनारोहण के समय पधारे। वे शत्रु-मित्र सभी से समान भाव से मिले। कांग्रेसमुक्त भारत का संकल्प लिया। बहुत हद तक सफल हो चुके हैं। लेकिन जब राजा रामचंद्र को सफल होने में 12 वर्ष लगे और श्रीकृष्ण को भी लगभग उतने ही। तो नमो को सत्तासीन हुए तो अभी महज एक वर्ष ही बीता है।

नमो की फौज कौरवों की फौज से भी बड़ी है। अपनी हर बात मनवा ही लेती है। नमो कांग्रेस को परास्त करने से पहले शेर से भी तेज दहाड़ते थे। एक ही समय में अनेक स्थानों पर दिखाई देते हुए गरजते थे। किंतु विजयश्री हासिल होने के बाद से वे शांत हैं, उनकी जगह भक्तगण दहाड़ रहे हैं।
बताया जा रहा है कि एक हजार साल बाद कोई हिंदू दिल्ली के सिंहासन पर बैठा है। इसी दिल्ली के पास वह हस्तिनापुर है जिसके लिए करीब पांच हजार साल पहले महाभारत का युद्ध हुआ था और श्रीमद्भागवतगीता की रचना हुई थी। लेकिन अब वह हस्तिनापुर महज एक छोटा गांव सा बन कर रह गया है। तो क्यों न नमो को ही कलियुग का भगवान मान लिया जाए।


यह कहना भी सरासर गलत है कि नमो ने कांग्रेसरूपी राक्षस को परास्त करने के लिए असत्य का सहारा लिया इसलिए उन्हें भगवान का दर्जा नहीं दिया जा सकता। आखिर अश्वत्थामा हताहत भी तो हुआ था (नरो वा कुंजरो तो धीरे से मन में), राम ने भी पेड़ के पीछे छिपकर बाण चलाया था। यहां भी छिप छिप कर क्या हो रहा है किसे पता...
जारी..

Saturday 30 May 2015

आओ इतिहास बदलें, लेकिन बदलेंगे क्या ?

नई सरकार की पूरी कोशिश है कि भारत का इतिहास बदला जाये. प्रधान मंत्री से लेकर सभी मंत्री और आरएसएस से जुड़े विद्वान इसे जरूरी बताते हैं. लेकिन कैसे बदलेंगे इतिहास.

एचआरडी या मानव संसाधन मंत्रालय देश का सबसे बड़ा और सबसे महत्वपूर्ण विभाग है। इसमें शिक्षा भी शामिल है और शिक्षा प्रणाली को क्या नया स्वरूप देना है वह भी शामिल है। देश के युवाओं को युग की जरूरतों के मुताबिक ढालने के लिए तैयार करना भी, सांस्कृतिक, शैक्षणिक, वैज्ञानिक जागरूकता बढ़ाना भी। शिक्षा आप समझते हैं..जैसी देंगे वैसे ही भावी पीढ़ियां बनेंगी। नए प्रधानमंत्री गुजरात में करीब 13 साल मुख्यमंत्री रहे हैं। वहां के शिक्षा का स्तर और पाठ्यपुस्तकों में तथ्यात्मक गलतियां सामने आती रही हैं।
खैर, वाजपेयी सरकार में एचआरडी मंत्री थे डा. मुरली मनोहर जोशी जो अच्छे खासे पढ़े लिखे हैं प्रोफेसर रहे हैं। उन्हें इस बार उनकी पार्टी ने किनारे कर दिया। क्योंकि उन्होंने स्कूल चलें हम और सर्वशिक्षा अभियान तो चलाया लेकिन स्कूल कालेजों के सिलेबस का भगवाकरण पूरा करने में नाकाम रहे। अब कोई भी ज्यादा पढ़ा लिखा व्यक्ति शिक्षा मंत्री बनेगा तो वो भारत के इतिहास और अतीत से ज्यादा खिलवाड़ नहीं कर सकेगा। 


अगर उसे प्राचीन भारत का इतिहास बताना है तो वही स्रोत रहेंगे उसे बताने के जो अब तक रहे हैं। वह अपनी मरजी से यह नहीं लिखवा सकता कि लंकापति रावण अज्ञानी था, अनपढ़ था उसने पूरी दुनिया को चौपट कर दिया था और इक्ष्वाकु वंश के राजा राम चंद्र ने अपनी पत्नी या जीवनसंगिनी का साथ जिंदगी भर नहीं छोड़ा। रामराज्य के बारे में मनगढ़ंत बातें भी वह सिलेबस में नहीं लिखवा सकता क्योंकि बहुत सी जानकारी वाल्मीकि रामायण में और अन्य प्राचीन ग्रंथों में मौजूद है, जिसे बदला नहीं जा सकता। 
श्रीकृष्ण की गाथा केवल रासलीला से नहीं उनकी राजनीतिक चतुरता से भी भरी पड़ी है, लेकिन तब यह तो बताना ही पड़ेगा कि कैसे एक इंच जमीन के लिए (या पांच गांवों के लिए या अपने हक के लिए) भाई भाई से लड़े थे, अर्जुन तो हथियार उठाने को तैयार नहीं थे, उन्हें कृष्ण ने कैसे मनाया, तब गीता सार या श्रीमदभगवतगीता को कैसे समझाएंगे।
 यह तो बताना पड़ेगा जब भारत-भूमि पर मुसलमान नहीं आए थे तब लोग लड़ते क्यों थे, राजा एक-दूसरे पर हमला कैसे और क्यों करते थे। वो किस धर्म के होते थे। क्या फिर शैव, शाक्त, वैष्णव आदि आदि की लड़ाई की परतें उधड़नी बंद हो जाएंगी।
क्या प्राचीन वर्ण व्यवस्था और उससे उपजी कुरीतियों को इतिहास के पन्नों से हटा देंगे, तब राजा राम मोहन राय और सती प्रथा का उल्लेख कैसे करेंगे, राणी सती मंदिर का जिक्र करेंगे तो सती प्रथा आज की 21वीं सदी से 22वीं सदी में जाती जनता को कैसे सही बताएंगे। मध्य कालीन भारतीय इतिहास का कोई जानकार यह तथ्य नहीं बदल सकता कि बाबर भारत क्यों आया था, उसने क्या किया, मुगल साम्राज्य का अस्तित्व किताबों से खत्म नहीं किया जा सकता क्यों उसके अवशेष देशभर में बिखरे पड़े हैं। अलाउद्दीन खिलजी की बाजार व्यवस्था, अकबर की जमीन नापतौल की व्यवस्था, कोस मीनार, सर्वधर्म समभाव, दीन ए इलाही को कैसे खत्म करेंगे। महाराणा प्रताप, महारानी लक्ष्मी बाई और उन्हीं के जैसे योद्धाओं की गाथा बताने के लिए यह तो बताना ही पड़ेगा कि उन्होंने संघर्ष किया किससे था। गोस्वामी तुलसीदास की रामचरित मानस लिखे जाते समय शासन किसका था।
आधुनिक काल में अंग्रेजों का भारत आना, भारतीय संस्कृति को बरबाद करना, सारा सोना लूट कर ले जाने वाला बताओगे तो सारे ज्योतिर्लिंग, कामाख्या पीठ, बद्री-केदार, कैसे बच गए, श्रीपद्मनाभमंदिर से निकले भारी भरकम सोने हीरे जवाहरात के बारे में क्या बताओगे। अंग्रेजों के राज में ये बच कैसे गए, कुतुब मीनार, ताज महल, लाल किला, प्राचीन महल, कैसे रह गए। फिर क्या बताओगे, माना पुष्पक विमान श्रीरामचंद्र के जमाने में था रावण के पास भी कुछ विमान थे जिनमें से एक में उसने सीतामाता का अपहरण कर लिया था, लेकिन यह तो बताना पड़ेगा कि देश का सबसे लंबा सड़क मार्ग शेरशाह सूरी ने बनवाया थे, रेलवे लाइनें भारत में अंग्रेजों ने बनवाई थीं।
 आधुनिक भारत में क्या बताएंगे..अंग्रेजों से लड़कर आजादी किसने हासिल की। शहीद भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, जलियांवाला बाग, तात्या टोपे, रानी लक्ष्मीबाई, मंगल पांडे के साथ आखिरी मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर का नाम भी लेना पड़ेगा। गांधी बाबा को दक्षिण अफ्रीका में ट्रेन से फेंक दिया गया था उसका बदला उन्होंने अंग्रेजों से लिया यह कह कर टाल नहीं सकेंगे। यह बताना पड़ेगा कि उस अधनंगे रहने वाले डेढ़ पसली के से आदमी ने छप्पन इंच का सीना न होते हुए भी अंग्रेजों की नाक में कैसे दम कर रखा था। वीर सावरकर की गाथा और उनकी किताबों के आदर्श बताते समय यह भी बताना पड़ेगा कि वे फ्रांस के बंदरगाह के पास जहाज से कूदे क्यों थे। और भी बहुत सी बातें हैं।

जैसे 1925 में आरएसएस बनने के बाद से उसके स्वयंसेवक कर क्या रहे थे। आजादी की लड़ाई में उनका अपना क्या योगदान था। जो लोग उस समय पुलिस में थे क्या उन्होंने आजादी के लिए लड़ रहे आंदोलनकारियों का साथ दिया था या अंग्रेजों के आदेश पर उन्होंनें आंदोलनकारियों पर लाठी-गोली चलाई थी। भड़कने की जरूरत नहीं सब किसी न किसी कोर्ट के रिकार्ड, किसी न किसी की डायरी में लिखा है। उस समय के गजट में लिखा है। सरकारी, निजी किताबों, डायरियों में दर्ज है। नई किताबें लिखवाने से उस अतीत को नहीं भुलाया जा सकता।
आजादी की लड़ाई के इतिहास में क्या कांग्रेस के नेताओं का योगदान भूल जाओगे, माना जवाहर नेहरू, या अन्य कांग्रेसियों को भूल जाओगे लेकिन जनसंघ कैसे जन्मा, जनसंघ या भाजपा के पुराने नेताओं ने अपनी राजनीति कैसे शुरू की, यह तो बताना पड़ेगा। भाखड़ा नंगल बांध से लेकर रावतभाटा परमाणु रिएक्टर, पहला परमाणु विस्फोट, भारत-पाक युद्ध, बंटवारे में तत्कालीन भाजपा नेताओं (तब भाजपा नहीं थी, लेकिन उसे बाद में बनाने वाले नेता और आरएसएस तो थे) का क्या योगदान था। यह तो बताना पड़ेगा। आज हर आदमी की जेब में मोबाइल फोन और लैपटाप या कम्प्यूटर कैसे पहुंचा, 2जी का घोटाला बताओगे तो यह बताना पड़ेगा कि फोन की दरें इतनी सस्ती कैसे रहीं।



हां, आर्यभट्ट, वराहमिहिर जैसे विद्वानों की जानकारी व्यापक स्तर फैलाई जा सकती है जो जरूरी भी है। यह बताया जा सकता है कि टेस्ट ट्यूब बेबी का प्रचलन घड़ों में संतान के जन्म के रूप में था, उस समय की अत्याधुनिक सर्जरी के तहत गणेश के सिर पर हाथी का सिर लगाया जाना था। यह अलग बात है कि आधुनिक भारत में एक वैज्ञानिक ने सुअर का दिल मनुष्य के शरीर में लगाया तो उसे प्रोत्साहित करने के बजाय उसकी इतनी छीछालेदर की गई कि छि सुअर का दिल..उसे आत्महत्या करनी पड़ी।
लेकिन भाजपा को ज्यादा पढ़े-लिखे शिक्षा मंत्री की शायद जरूरत नहीं है। क्योंकि वह हर कदम पर सवाल उठा सकता है। सवाल खड़े करने वालों के साथ क्या हो रहा है, यह नजर आ रहा है। प्रेस कांफ्रेंसों में भी। भाजपा के शिक्षामंत्री की शैक्षणिक योग्यता पर सवाल उठाने वालों को जवाब मिल रहा है..कांग्रेस की चाल है..सोनिया की शिक्षा देखो, बताओ राहुल कहां तक पढ़े हैं। मानो सवाल उठाने वाले सब कांग्रेसी ही हैं। अगर हैं तो कांग्रेस के शासन के प्रधानमंत्री और एचआरडी मंत्री की शैक्षणिक योग्यता देख लो। जवाब है उन्होंने कौन सा तीन मार लिया। जीडीपी, ग्रोथ रेट पर चर्चा से पहले उसी अवधि में आपको देखना पड़ेगा कि दुनिया के सबसे ज्यादा पैसे वाले देश अमेरिका में आया सीक्वेस्टर संकट क्या था। कैसे दुनिया की कार सिटी कहलाने वाले शहर को दिवालिया घोषित होने के लिए कोर्ट का सहारा लेना पड़ा। क्यों यूरोप और अमेरिकी देशों में गंभीर आर्थिक संकट आया।
लेकिन इस सबके लिए पढ़ा लिखा होना भी जरूरी है। भावनाएं भड़काकर या दूसरों की लाई तकनीक का सहारा लेकर कम जानकार लोगों में महान बनना आसान है लेकिन जानकार लोगों (मोटी कमाई के लालच में पड़े उद्योगपतियों नहीं) को मूर्ख कब तक बना पाओगे। मकसद केवल चुनाव जीतना नहीं, उसके बाद काम करना भी है।