Friday, 23 May 2014

पर उपदेश कुशल बहुतेरे : कांग्रेस को सीख

पर उपदेश कुशल बहुतेरे  : कांग्रेस को सीख










राकेश माथुर
कांग्रेस को इस बार लोकसभा में करारी शिकस्त खानी पड़ी है। परिणाम आने के पहले और बाद में जिसे देखो कांग्रेस को उपदेश दे रहा था। अभी भी भाजपा सहित लगभग सभी दलों के नेता और कार्यकर्ता कांग्रेस को न केवल भला-बुरा कह रहे हैं बल्कि यह भी बता रहे हैं ऐसा करना चाहिए था, वैसा करना चाहिए था। कांग्रेस के कुछ नेता भी पार्टी नेतृत्व पर अपनी हार का ठीकरा फोड़ रहे हैं। मेरा नजरिया इस पर अलग है।

मीडिया को चटखारे वाली खबरें चाहिएं। कांग्रेस के नेता चाहे वो मिलिंद देवड़ा हों, दिग्विजय सिंह हों या बेनी प्रसाद वर्मा ऐसी खबरें देते रहे हैं। जिस तरह से मीडिया ने राहुल गांधी, मुलायम सिंह, अखिलेश यादव का मजाक उड़ाया है उसी तरह का मजाक अगर मीडिया दूसरी पार्टी के कुछ खास नेताओं का उतारता तो शायद उसे समझ में आ जाता कि मजाक और गंभीरता में क्या फर्क होता है। देश की सरकार बनाने और युवाओं को गुमराह कर सत्ता पाने में क्या अंतर होता है। खैर, हम लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की हार की बात कर रहे थे। इस चुनाव में 50 से ज्यादा नेता ऐसे थे जो कांग्रेस का टिकट लेने के बाद या उसके ऐन पहले भाजपा में शामिल हो गए। ज्यादातर जीत गए। उन्होंने क्यों और कैसे दल बदला तथा वे कैसे जीते इस पर कांग्रेस नेतृत्व को सोचना होगा। कांग्रेस को यह भी सोचना होगा कि उसके नेता खुले आम पार्टी नेतृत्व को ठीक वैसे ही गालियां या बुरा भला क्यों कहने लगे जैसे विपक्षी दल कहते हैं। क्या ऐसे लोगों से पार्टी छोड़ देने को कहा जाए या शांत रह कर पार्टी फोरम में चर्चा करने को कहा जाए। ऐसे नेताओं से पूछा जाना चाहिए कि उनकी जमीनी पकड़ कितनी थी, उन्होंने खुद जीतने के लिए क्या कोशिशें कीं। क्या वे केवल आलाकमान के भरोसे बैठे थे। क्या उन्हें किसी ने कहा था कि वे जीतने की कोशिश न करें। क्या उन्होंने यह देखने की कोशिश की कि विपक्षी दल चुनाव जीतने के लिए कौन कौन से पेंतरे अपना रहा है। क्या उन्होंने हर बूथ पर अपने लोग तैनात किए। अगर किए तो क्या वे विश्वासयोग्य थे। पहले उन्हें खुद अपनी समीक्षा करनी चाहिए। आखिर इस बुरी हालत में भी 44 लोग तो जीत कर आए ही हैं। वे कैसे जीते।
सबसे जरूरी बात यह है कि नीयत चाहे कितनी भी अच्छी हो, मीडिया उसका प्रचार किस तरह कर रहा है इस पर नजर रखना और दुष्प्रचार रोकने के तरीके अपनाना बहुत जरूरी है। मीडिया का रुझान तो इस चुनाव में साफ नजर आया। कुछ टीवी चैनलों ने चर्चा में कांग्रेस के प्रतिनिधियों को बुलाया लेकिन उनके कुछ बोलना शुरू करने से पहले ही एंकरों ने उन्हें जलील करना शुरू कर दिया। कांग्रेस के वे प्रतिनिधि खामोश रह गए, उन्हें बोलने का मौका नहीं दिया गया और कहा गया कि उनके पास कोई जवाब ही नहीं है वो कहेंगे क्या। इसके साथ ही पैनल में बैठे बाकी सभी लोग कांग्रेस का मजाक उड़ाने लगते। ऐसा क्यों हुआ, इस पर विचार करना जरूरी है वर्ना हर बार यही होगा। इसे रोकने के लिए सख्त कदम उठाने होंगे। ऐसे एंकरों को बुरी तरह झाड़ने में सक्षम नेताओं को ही टीवी की बहस में भेजा जाना चाहिए।
चुनाव और प्रचार के दौरान ज्यादातर अखबारों और टीवी चैनलों में एक लाइन जरूर थी, कांग्रेस बुरी तरह हार रही है, इस बार कांग्रेस किसी कीमत पर नहीं जीतेगी। ऐसे लेखकों और मीडिया पर कांग्रेस को नजर रखनी होगी। परिणाम आने से पहले कोई कैसे कह सकता है कौन जीतेगा कौन हारेगा। असल में यह भाजपा के चुनाव प्रचार का हिस्सा था। वे लेखक भाजपा या राष्ट्रीय स्वयं सेवक की विचारधारा के थे या उन्हें ऐसा लिख कर माहौल बनाने के पैसे दिए गए थे। कुछ भी हो अपने पक्ष में चुनावी माहौल बनाने के लिए सभी पार्टियां ऐसा करती हैं, यह गलत भी नहीं है लेकिन इस बार ऐसा केवल एक पार्टी के लिए हुआ। दूसरी सभी पार्टियों को खराब बताया गया। एक माहौल बनाया गया। खैर,  इस बार तो जो हुआ सो हुआ लेकिन अगली बार इसकी काट खोजना बहुत जरूरी है। कहीं ऐसा तो नहीं जिस पर चुनाव प्रचार के लिए बहुत ज्यादा भरोसा किया था वही धोखा दे गया।
जीतने वाली पार्टी की चुनावी रणनीति को भी समझना जरूरी है। उसके पास इस बार एक व्यवस्थित रणनीति थी यह तो मानना ही पड़ेगा। इसमें झूठ, दबंगता, शारीरिक हावभाव, डंके की चोट पर गलत बात कहना भी शामिल था तो एक पूरी फौज टेक्नोक्रेट्स, भाषण लेखकों और आईटी एक्सपर्ट्स की भी थी। माना कांग्रेस के खून में झूठ, दबंगता और डंके की चोट पर गलत बात कहना नहीं है, लेकिन आईटी एक्सपर्ट्स और टेक्नोक्रेट्स की उतनी बड़ी नहीं तो छोटी फौज तो कांग्रेस के पास भी थी। अंतर केवल इतना था कि उसमें शायद राजनीति और विपक्ष की चाल समझने वाले नहीं थे।

कांग्रेस और अन्य सभी दलों को इस बार किसी भी चुनाव से पहले ईवीएम पर खास नजर रखनी होगी। कई जगहों से ऐसी खबरें आई कि कोई भी बटन दबाओ, एक खास पार्टी को ही सारे वोट जाएंगे। कुछ जगहों पर यह सही पाया गया। कार्रवाई केवल इतनी हुई कि ईवीएम बदल दी गई। लेकिन उसमें भी वही था। यानी इस किस्म के आईटी एक्सपर्ट उस पार्टी के पास थे जो ईवीएम का परिणाम बदलने में सक्षम थे। बीबीसी ने इस पर एक रिपोर्ट भी प्रसारित की थी। मध्य प्रदेश विधानसभा चुनावों में भी ऐसा हुआ था। इसलिए सतर्क रहना बहुत जरूरी था, लेकिन कांग्रेस इस जगह पर बुरी तरह से चूक गई।  इसे आधुनिक तरीके से बूथ कब्जा करना कहा जाता है। भाजपा ने वन बूथ 10 यूथ की रणनीति तैयार की थी। उसकी मदद कर रहे राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने भी हर बूथ पर अपना एक अलग व्यक्ति तैनात करने की योजना बनाई थी। इसका मतलब उन्होंने बताया कि बूथ पर ज्यादा से ज्यादा वोटर लाने के लिए उन्होंने ऐसा किया। लेकिन मीडिया में दूसरी तरह की रिपोर्टें भी आई। इस पर कांग्रेस ने कोई रणनीति नहीं बनाई। अगर बनाई भी तो उस पर अमल होता नहीं दिखा। यानी हो सकता है कुछ आस्तीन के छिपे सांप हों या कुछ ने केवल कह दिया हो कि हां हमने कर दिया इंतजाम और कुछ किया ही न हो। तो अगर ऐसी जिम्मेदारी किसी को दी गई हो तो उससे जवाब तलब किया जाए।

पार्टी में राष्ट्रीय स्तर से लेकर प्रदेश, जिला, पंचायत, तहसील, गांव, मुहल्ला, वार्ड  स्तर तक पदाधिकारियों की इतनी लंबी चौड़ी फौज आखिर कर क्या रही थी। क्या वह सिर्फ राहुल गांधी या सोनिया गांधी से किसी करिश्मे की उम्मीद में बैठी थी। आखिर पदाधिकारी होते क्यों हैं। क्या केवल पद का लाभ लेने के लिए। क्या पार्टी के प्रति उनकी कोई जिम्मेदारी नहीं होती। आखिर गुटबाजी क्या करेगी जब कोई भी नहीं जीत पाएगा। एक दूसरे को हराने में लगे नेता पार्टी को बिल्कुल खत्म कर दें उससे पहले उन्हें पार्टी से बाहर कर दिया जाए यही बेहतर होगा। एक कारपोरेट कंपनी की तरह अब हर पदाधिकारी से हर महीने पूछा जाना चाहिए कि उसने अपने इलाके में पार्टी के हित में क्या काम किया। उसके दावे की जांच भी होनी चाहिए और समीक्षा भी। जांच और समीक्षा पुराने अनुभवी लोगों से करवाई जानी चाहिए न कि नए पहली बार राजनीति में आए युवाओं से।
किसी जमाने में कांग्रेस और युवा कांग्रेस हर बड़े नेता की जयंती या पुण्यतिथि पर रक्तदान शिविर लगाती थी, गरीबों के लिए कपड़े, कंबल आदि एकत्र कर उन्हें बंटवाती थी, उनका बाकायदा प्रचार भी होता था। असल में काम होने से लोगों पर उसका असर भी पड़ता था। अब एयरकंडीशंड में बैठने वाले नेटसेवी लोगों की फौज बिना एसी गाड़ी के सड़क पर नहीं निकल सकती। तो असल काम करेगा कौन। रात में झोपड़ पट्टी में चुपचाप कांग्रेस के झंडे फहरा देने से वोट नहीं मिलते। उन इलाकों में काम भी करना पड़ता है और उसका प्रचार भी। खेत में मजदूर के साथ रोटी खाने वाली फोटो प्रसारित करने से पहले यह भी देख लें कि ठेठ गांव के खेत में बोनचाइना की प्लेट कहां से आएगी। ऐसी ही एक तस्वीर का पिछले दिनों सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर खूब मजाक उड़ा था।
अब भी समय है। किसी का लिहाज करने से या अरे छोड़ो यार ऐसा हम नहीं करते..कहने से पहले पार्टी के कुछ उन लोगों की जीवनियां देख ली जाएं जो बहुत ऊपर तक चढ़े थे। जिन राज्यों में दूसरे दलों की सरकारें हैं वहीं के घपले घोटाले जोरों से उठाए जाएं। मध्य़ प्रदेश और छत्तीसगढ़ में ऐसे मामलों की भरमार है लेकिन कांग्रेस के लोग या तो भाजपा सरकार से लाभ उठाने के कारण खामोश हैं या जोर-शोर से मामले उठाने के लिए उनके पास युवाओं की फौज नहीं है। युवाओं की सेना को संगठित करने के लिए जमीनी स्तर पर सबको मिलकर कोशिश करनी होगी।

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