Wednesday, 4 June 2014

क्या भारत सपेरों के देश से दुष्कर्मों का देश हो गया है ?


वर्ष 2013 और 2014 के अखबार और टीवी चैनल बलात्कार की खबरों से भरे पड़े हैं। कुछ टीवी चैनल बड़े गर्व से चिल्ला चिल्ला कर कह रहे हैं कि संयुक्त राष्ट्र तक ने बदायूं के बलात्कार को दुनिया की सबसे घृणित घटना माना है। एक रहस्य है जो समझ से परे है। दिल्ली में 16 दिसंबर 2012 को एक घटना हुई। देर रात सड़क पर जा रहे प्रेमी जोड़े ने बस वाले से लिफ्ट मांगी, बस में कई युवक सवार थे। उन्होंने न केवल लिफ्ट दी बल्कि लड़के को बेहोश कर लड़की से सामूहिक बलात्कार किया और बहुत ही घृणित तरीके से उसे घायल कर दोनों को सड़क पर फेंक दिया। लड़की का सरकार ने सिंगापुर तक इलाज करवाया लेकिन उसकी जान नहीं बच सकी। उसे निर्भया कांड नाम दिया गया और तत्कालीन मुख्यमंत्री को उस एक कांड के लिए इतनी गालियां दी गई मानो उनकी जिम्मेदारी हो उसे रोकना या वो खुद वहां घटनास्थल पर क्यों नहीं थीं। इसी एक मामले को इतना उछाला गया कि दिल्ली में कांग्रेस शासित राज्य खत्म हो गया और नई जन्मी पार्टी आम आदमी पार्टी से सत्ता संभाली जो महज 49 दिन चल सकी।
  वैसी घटनाएं बंद नहीं हुई लेकिन अब खबरें आना बंद हो गया। फिर लोकसभा चुनावों में माहौल कुछ दूसरा रहा। अब फिर उत्तर प्रदेश को निशाना बनाया जा रहा है जहां क्षेत्रीय पार्टी (समाजवादी पार्टी) भारी बहुमत से जीत कर सत्ता में आई थी। उस पार्टी को ऐसे निशाना बनाया जा रहा है मानो देश में हो रहे बलात्कारों के लिए वही दोषी है। सारा मीडिया, अखबार और टीवी उत्तर प्रदेश के निम्न सामाजिक वर्ग में हो रहे बलात्कारों को ढूंढ ढूंढ कर निकाल रहे हैं और वे टीवी चैनलों पर 24 घंटे सातों दिन आ रहे हैं मानो देश में केवल यूपी हो और यूपी में केवल बलात्कार। पूरी दुनिया सुन रही है। ऐसा नहीं कि बलात्कार बाकी राज्यों में नहीं हो रहे। लेकिन उन्हें रोकने के उपाय करने या सुझाने के बजाय केंद्र सरकार भी राज्य सरकार को कोस रही है और सारा मीडिया भी यह इन घटनाओं के होने या करवाए जाने का शक भी पैदा करता है। संभवतः इसलिए कि केंद्र में सत्ता में आई नई पार्टी ने उत्तर प्रदेश में आक्रामक चुनाव प्रचार किया था और बिना मतलब के मुद्दे उठा उठा कर इतना प्रचारित किया कि उसे 80 में से 73 सीटें हासिल हो गई। हो सकता है उसके विचारों और प्रचार की मेहनत के बल पर ये सीटें मिली हों, लेकिन मन में शक तो पैदा होता है जिसका कोई कुछ नहीं कर सकता। अब देश के सबसे बड़े राज्य की बहुमत से निर्वाचित सरकार को बलात्कारों के नाम पर बर्खास्त कर सत्ता हथियाने की तैयारी लगती है।
मीडिया की नजर में होते हुए भी नहीं हैं। क्यों यह तो वमध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, पंजाब, गुजरात, पश्चिम बंगाल, मेघालय, महाराष्ट्र आदि में भी बलात्कार कम नहीं हो रहे लेकिन उन राज्यों की घटनाएंह ही बेहतर जाने। मीडिया से यह कहे जाने पर कि वह उत्तर प्रदेश की घटनाओं को ही बढ़ा चढ़ा कर दिखा रहा है, मीडिया भड़क रहा है और दोगुनी चौगुनी गति से उत्तर प्रदेश के खिलाफ पिल पड़ा है। मानो उसका लक्ष्य खबरें दिखाना या समाज को सुधारना नहीं बल्कि अपना या किसी एक राजनीतिक दल विशेष के हित साधने का रह गया हो।
पहले दुनिया में भारत का नाम सपेरों और बैलगाड़ियों के देश के रूप में मशहूर था। लोग स्नेकचार्मर्स को देखने आया करते थे। सपेरे भी बीन बजा कर सांपों को नचा कर उनका मनोरंजन करते थे। अब कई देशों ने अपने नागरिकों को खास हिदायत जारी की है कि वे जरूरी न तो भारत की यात्रा न करें क्योंकि वहां हिंसा और बलात्कार की घटनाएं बढ़ रही हैं। यह क्या शर्मनाक नहीं है।
भारत में महिलाओं को ऋग्वेद काल से ही हीन या हेय दृष्टि से देखा जाता रहा है। बीच बीच में कुछ विदुषियों के नाम शायद ठीक उसी प्रकार आए होंगे जैसे इंदिरा गांधी, कल्पना चावला, किरण बेदी, प्रतिभा पाटील, मीरा कुमार आदि के आज आ रहे हैं। प्राचीन भारतीय इतिहास की पुस्तकों के अनुसार ऋग्वैदिक देवकुल में भी देवताओं की तुलना में देवियों को नगण्य ही माना गया है। इंद्राणि, रोदसी, श्रद्धा, धृति आदि को कोई विशेष महत्ता नहीं दी गई। यहां तक कि अदिति और उषा जैसी तथाकथित महत्वपूर्ण देवियों का उल्लेख भी आदर से नहीं हुआ है। इंद्र द्वारा उषा का बलात्कार अनेक स्थानों पर वर्णित है। क्या यह महज संयोग है कि जिन स्थलों पर इंद्र एवं उषा का द्वंद्व वर्णित है वहीं अवैदिक मुखियों के विरुद्ध इंद्र की सफलता का वर्णन है। 
बलात्कार को पश्चिमी सभ्यता की देन बताने वाले शायद अपने ही पुराने सामाजिक ढांचे को या तो पढ़ नहीं पाए या न समझने का ढोंग कर रहे हैं। ढोर, गंवार, शुद्र पशु नारी ये सब हैं ताड़न के अधिकारी.. भी हमारे ही बुजुर्ग कह नहीं बल्कि लिख गए हैं। इनमें नारी का अर्थ आप भी समझते होंगे।
क्या कोई इलाज भी है
समाज में ऐसी घटनाएं तब तक होती रहेंगी जब तक समाज के सभी वर्गों को समान रूप से मजबूत न कर दिया जाए। राजनेता अपनी दबंगता बनाए रखने के लिए बाहुबलियों का उपयोग करते हैं। ये बाहुबलि उन्हीं राजनेताओं का संरक्षण प्राप्त कर अपने अपने क्षेत्रों में दबंगता दिखाते हैं। जिस किसी से जरा सा मनमुटाव हुआ, उसी की बहन बेटियों या पत्नी तक को उठा लेते हैं। इसके जरिये वे अपनी मर्दानगी दिखाना चाहते हैं। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि वे अपने तर्कों में कमजोर और शरीर से पुष्ट होते हैं। अपने विरोधियों के सवालों के जवाब उनके पास नहीं होते इसलिए उन्हें खामोश करने के लिए ऐसे घिनौने तरीके अपनाए जाते हैं। अब कुछ राजनेता जानबूझ कर और कुछ पत्रकार तथा मीडिया घराने जाने-अनजाने में या मजबूरी में उनकी सहायता करने लगे हैं।

अगर बहुत गौर से देखा जाए तो हमारे सामाजिक ढांचे को सुधारने की जरूरत है। बदायूं की घटना उस समय की है जब लड़कियां शौच के लिए घर से बाहर गई थीं। उन्हें क्यों जाना पड़ा। क्योंकि घर में शौचालय नहीं था। आज भी गावों में लोग घरों में शौचालय नहीं बनवाते हैं यह मानकर कि उससे घर गंदा हो जाएगा या दिन भर बदबू आएगी। इसी सोच का लाभ गांव के मनचले और दबंग उठाते हैं। वे इस ताक में रहते हैं कि कब कौन जवान लड़की (बच्ची भी) घर से शौच के लिए निकले और वे उसे शेर की तरह झपट लें। अब सवाल स्थानीय पुलिस मदद क्यों नहीं करती। पुलिस में भी आदमी ही होते हैं जिन्हें वहां रोज काम करना होता है। खुद पुलिस के पास अपनी सुरक्षा का कोई इंतजाम नहीं रहता। कुछ थानों में मैंने खुद देखा है किस तरह राजनीतिक दलों से जुड़े छुटभैये नेता थाने में आकर थानेदार को धमका जाते हैं और थानेदार चुपचाप खड़ा सुनता रहता है। बाद में मजबूरी जताता है कि साहब क्या करें मन तो करता है..बंद कर इतना पीटें कि बोलना भूल जाए लेकिन फलां साहब का मुंहलगा है। इन्हीं हालात में कुछ पुलिसवाले अपनी जान बचाने को दबंगों का साथ देने लगते हैं और बहती गंगा में वे भी हाथ धो लेते हैं। यह हालत उत्तर भारत के लगभग सभी हिस्सों में है। वैसे, दक्षिण भारत की फिल्मों में भी ऐसा खूब दिखाया जाता है।

मेरे विचार में पुलिस को ऐसी घटनाओं से निपटने के लिए खुला हाथ दे दिया जाना चाहिए। उसे पुराने जमाने की जंग खाई बंदूकों की जगह कुछ नए हथियार देने होंगे। तभी कोई पुलिसवाला किसी दबंग की गोद में नहीं बैठेगा और किसी मजबूर बाप को यह नहीं कह सकेगा कि बाबा घर जाओ तुम्हारी बेटी लौट आएगी या किसी पेड़ पर टंगी मिल जाएगी।
समाज को भी समझना होगा। समाज कौन। हम और आप से मिल कर ही समाज बनता है। हजारों साल से समाज सुधारक आते रहे हैं, उनके काम स्कूली किताबों में शामिल हो गए लेकिन किसी ने अपने जीवन में उतारने की कोशिश नहीं की। उनके कामों को रट रट कर पास होने के लिए नहीं बल्कि जीवन में उतारने के लिए पढ़ा जाना चाहिए। आसाराम बापू जैसे धार्मिक पाखंडी भी हर गली कोने में खड़े हैं। सत्संग के नाम पर कैसी कैसी रासलीला रचते हैं यह भी समझने की जरूरत है। रामकथा के नाम पर क्या क्या होता है और वंदे मारम और भारत माता की जय की आड़ में क्या क्या होता है उससे भी सावधान रहने की जरूरत है। कौन कब कहां आपको इस्तेमाल कर ले कोई यकीन से नहीं कह सकता। किस के मन में कौन (रावण नहीं कहूगा) छिपा है भांपना आसान नहीं है। लेकिन भांपना ही होगा।

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