Wednesday, 18 June 2014

तेल देखो तेल की धार देखो

तेल और धार्मिक कट्टरता के बीच पिसता इराक

 राकेश माथुर
एक पुराना मुहावरा है। पता नहीं कब और कैसे शुरू हुआ। लेकिन इराक में तेल के खेल ने उस देश को लगभग खात्मे की ओर ला दिया है। देश तो खैर कभी खत्म नहीं होते उनके नाम और शासक बदल जाते हैं। लेकिन दुनिया के दादा बनने की फिराक में जिस अमेरिका ने और तेलकूपों पर कब्जा करने की नीयत से जिस राष्ट्रपति जार्ज बुश ने इराक को झूठ बोल कर हिंसा की चपेट में फंसाया क्या वह खुद अब इस तेल की धार नहीं देख रहा होगा। इराक में अमेरिकी फौजी अभियान यह कह कर छेड़ा गया था कि सद्दाम हुसैन व्यापक संहार के हथियार बना रहे हैं जिससे पूरी दुनिया को खतरा है। उसका असल मकसद उन तेल कूपों पर कब्जा करना था जिनका सद्दाम हुसैन ने राष्ट्रीयकरण कर दिया था। सद्दाम ने कहा था कि तेल के कुएं और भंडार इराक की संपदा हैं और वह किसी दूसरे देश को उनका नियंत्रण नहीं सौंप सकता। जार्ज बुश रिपब्लिकन नेता तो हैं ही वे बड़ी तेल कंपनी के वारिस भी हैं। उस समय उनके उपराष्ट्रपति डिक चेनी की भी तेल में भारी रुचि थी। हेलिबर्टन नामक कंपनी की रुचि थी। अमेरिका की तकलीफ ये थी कि सद्दाम ने 2003 में हुए अमेरिकी हमले से बहुत पहले ही अपने तेल भंडार का राष्ट्रीयकरण कर दिया था। उसने अपने तेल पर पश्चिमी देशों के लिए ताले डाल दिए थे। अमेरिका ने कई देशों के सहयोग से इराक पर हमला कर सद्दाम हुसैन को न केवल पकड़ा बल्कि उसे फांसी पर लटका दिया। जेल में नहीं डाला। इसलिए कि बाद में पोल खुलने पर कोई सद्दाम को जेल से छुड़ा कर फिर सत्ता पर न बिठा दे।

सद्दाम को फांसी से बढ़ा झगड़ा :

इराक में अब फिर गंभीर संकट है। झगड़ा शिया सुन्नी और कुर्दों के बीच है। यहां यह समझना पड़ेगा कि सद्दाम हुसैन सुन्नी थे और इराक में बहुमत शियाओं का था। सद्दाम ने काफी हद तक दोनों को साध कर रखा। सद्दाम को फांसी की सजा तानाशाही शासन या ईरान-कुवैत से युद्ध के अपराध में नहीं बल्कि दुजैल में 148 इराकी शियाओं की हत्या के आरोप में मिली थी। अमेरिका के इराक छोड़ देने के बाद शियाओं को सत्ता मिली। इसके साथ ही वहां अराजकता का दौर तेज हो गया।
सद्दाम हुसैन के मुकदमे की सुनवाई करने वाले पहले चीफ जज रिजगर मुह मद अमीन ने सद्दाम को फांसी दिए जाने को गैर कानूनी ठहराया था। उन्होंने कहा था कि ईद अल अदहा के त्योहार के समय फांसी देने पर प्रतिबंध है, सद्दाम को अपील के लिए 30 दिन का समय भी नहीं दिया गया। अमेरिका ने कहा न्याय मिल गया, लेकिन यूरोपीय देशों ने फांसी की कड़ी आलोचना की। मिस्र के तत्कालीन राष्ट्रपति होस्नी मुबारक ने इसे शर्मनाक बताया। लीबिया में कर्नल गद्दाफी ने तीन दिन का राजकीय शोक घोषित किया। मलेशिया के प्रधानमंत्री महाथिर बिन मुह मद ने मानवता के खिलाफ बर्बर हत्या करार देते हुए बुश और ब्लेयर को हत्या का अपराधी बताया। कई देशों ने सद्दाम की फांसी पर टिप्पणी नहीं की लेकिन इराक में जल्द शांति की उ मीद जताई।
शिया नेता नूरी अल मलिकी (जो अब प्रधानमंत्री हैं) ने कहा था, जनता के नाम पर न्याय मिल गया, अपराधी सद्दाम हुसैन को फांसी हो गई। सुन्नी नेता खलफ अल उल्लायम ने सद्दाम को फांसी देना सबसे बड़ा अपराध करार दिया। कुर्द नेताओं ने फांसी को सही ठहराया, कहा सद्दाम ने 1983 और 1988 में रासायनिक गैस से दस हजार से ज्यादा कुर्दों को मरवा दिया था। इन आरोपों पर तो सद्दाम पर मुकदमा चला ही नहीं। फांसी पहले हो गई। सद्दाम की फांसी पर इराक के शियाओं ने जश्न मनाया, सुन्नियों ने दुख और कुर्दों ने अफसोस। अब तीनों अपना वर्चस्व बढ़ाने में लगे हैं।

अब क्यों घबराया अमेरिका

अमेरिका के तब के नेताओं को उ मीद थी कि सद्दाम हुसैन को पद से हटा कर अगर उनके विरोधियों का साथ दिया जाए तो इराकी तेल भंडार पर अमेरिका का नियंत्रण हो सकता है। नई सरकार ने तेल भंडारों का तेजी से निजीकरण किया। एक्सोन मोबिल और शेवरान से लेकर बीपी तक जैसी बड़ी पश्चिमी कंपनियों ने इराक में अपनी दुकानें खोल लीं। बुश के रनिंग मेट उपराष्ट्रपति डिक चेनी की कंपनी हेलिबर्टन भी शामिल थी। 30 साल में पहली बार पश्चिमी तेल कंपनियां इराक में तेल निकालने लगीं। लेकिन सबसे ज्यादा फायदा अमेरिका को नहीं बल्कि चीन को हुआ। उसने इराक से निकलने वाले आधे से ज्यादा तेल पर कब्जा किया। चीन ने वहां दो अरब डालर का निवेश किया और हजारों कर्मचारी भेज दिए। अमेरिकी रक्षा विश्लेषकों ने कहा, हम हार गए, चीन ने युद्ध में कुछ नहीं किया लेकिन सबसे ज्यादा फायदा वही उठा ले गया। चीन क्यों फायदे में है यह जानना भी जरूरी है। वह इराकी शर्तों के मुताबिक काम कर रहा है। उसे अमेरिकी कंपनियों की तरह मुंहफाड़ मुनाफा नहीं चाहिए। वह कम मुनाफे पर भी काम करने को तैयार है। अमेरिका में तो अब बुश को चीन का भेदिया तक कहा जाने लगा है जिसने चीन को लाभ पहुंचाने के लिए अमेरिकी डॉलर और सैनिकों की बरबादी की।
उस पूरे अभियान में अमेरिका के 10,000 से ज्यादा सैनिक मारे गए। आधिकारिक तौर पर 4,448। कई लाख करोड़ रुपए खर्च हुए। अमेरिकी नागरिक समझ गए कि ये तेल का खेल है जिसमें देश नहीं बल्कि केवल कुछ नेताओं का हित है। यह बात इराक के लोगों को भी समझ में आ गई। पहले उन्हें भडक़ाया गया कि सद्दाम हुसैन तानाशाह है, उसका और उसके बेटों का राज चलता है। उनमें से कुछ ने अमेरिका का साथ दिया। आखिर जयचंद हर देश काल में होते ही हैं।

अल बगदादी और अमेरिका की गलती :

फिलहाल, इराक के शहर-दर-शहर कब्जा करने वाले सुन्नी (आतंकी) संगठन आईएसआईएल (इस्लामिक स्टेट इन इराक एंड द लेवेंट) का सरगना अबू बकर अल बगदादी है। अनपढ़ गवांर नहीं बल्कि बगदाद विश्वविद्यालय से इस्लामी अध्ययन में पीएच.डी है। अल बगदादी को 2011 में अमेरिका ने अंतरराष्ट्रीय आतंकी घोषित किया, उसे जिंदा या मुर्दा पकडऩे के लिए एक करोड़ डॉलर का इनाम रखा। इससे ज्यादा 2.5 करोड़ डॉलर का इनाम केवल अलकायदा सरगना अयमान अल जवाहिरी पर है। इराक पर अमेरिकी हमले के बाद 2003 से अल बगदादी ने कई छोटे मोटे आतंकी हमले किए। वह मुजाहिदीन की  मजलिस अल शूरा का सदस्य रहा। अमेरिकी फौज ने उसे 2005 में पकड़ लिया था। इराक में ही अमेरिकी कैंप अल बुक्का में रखा। लेकिन 2009 में उसे इराक सरकार के हवाले कर दिया। छूटते ही उसने खुद को आईएसआई (इस्लामी स्टेट ऑफ इराक) का नेता घोषित कर दिया। उससे पहले आईएसआई के सरगना अबू उमर अल बगदादी की मौत हो चुकी थी। अप्रैल 2013 में अबू बकर ने सीरिया में भी पैर फैला लिए। संगठन के नाम में सीरिया भी जोड़ दिया। अल बगदादी ने पहले खुद को अल कायदा से जोड़ा लेकिन  जब अल कायदा सरगना जवाहिरी ने उससे सीरिया अल नुसरा के लिए छोडऩे को कहा तो उसने अल कायदा को ही छोड़ दिया। 2 दिसंबर 2012 को इराकी अधिकारियों ने दावा किया कि उन्होंने अल बगदादी को 2 महीने की मेहनत के बाद पकड़ लिया। पांच दिन बाद अल जजीरा ने कहा अल बगदादी को पकडऩे का दावा झूठा है।

भारत का क्या रुख रहा 

भारत के इराक से रिश्ते सदियों पुराने हैं। तब से जब इराक नहीं मेसोपोटामिया साम्राज्य था। भारत की आजादी को मान्यता देने वाले शुरुआती देशों में इराक भी शामिल था। और भारत इराक की बाथ पार्टी वाली सरकार को मान्यता देने वाले पहले देशों में। 1965 के भारत पाक युद्ध में इराक ने किसी का पक्ष नहीं लिया। 1971 की भारत-पाक लड़ाई में इराक ने बाकी इरब देशों के साथ पाकिस्तान का पक्ष लिया। 1980 के दशक में भारत ने इराकी वायुसैनिकों को ट्रेनिंग दी।  
इंदिरा गांधी के समय भारत दुनिया में सबसे ताकतवर था। गुट निरपेक्ष देशों का एक बड़ा संगठन भारत ने बनाया था। इराक उसका सदस्य था। अमेरिका ने 1990 के दशक में ईरान-इराक के बीच आठ साल तक युद्ध चला। 1991 में भारत ने इराक पर हमले का विरोध किया और वहां हमला करने जा रहे अमेरिकी विमानों को ईंधन देने से मना कर दिया। बाद में इराक के अकेले पडऩे से भारत से उसके रिश्तों पर भी असर पड़ा। 1999 में इराक ने भारत के परमाणु परीक्षणों का उस समय समर्थन किया जब पश्चिमी देश भारत पर प्रतिबंध लगा रहे थे। ये परीक्षण वाजपेयी सरकार के समय हुए थे और जवाब में पाकिस्तान ने भी परमाणु परीक्षण किए थे। 6 अगस्त 2002 को सद्दाम हुसैन ने कश्मीर मुद्दे पर भारत को अटल समर्थन देने की घोषणा की थी। कुवैत पर इराकी हमले के बाद इराक पर कई प्रतिबंध लगा दिए थे। उसका तेल कोई रकम देकर नहीं खरीद सकता था। तब तेल के बदले अनाज योजना शुरू हुई। भारत ने इराक की मदद के लिए इस योजना का लाभ उठाया। अपनी तेल की जरूरतें पूरी करने के लिए इराक को अनाज दिया। बाद में अमेरिकी हमले के समय सद्दाम हुसैन को आतंकी मान लिया गया, और 2005 में यह खुलासा किया गया कि तेल के बदले अनाज मामले में तत्कालीन विदेश मंत्री नटवर सिंह और कांग्रेस पार्टी ने इराक की बाथ पार्टी से दलाली ली है। काफी बवाल मचा। उस समय तक भारत में एनडीए की सरकार बन चुकी थी। बुश कह चुके थे कि जो हमारे साथ नहीं वो आतंकियों के साथ है। सद्दाम हुसैन को पकड़ कर फांसी पर लटका दिया गया।
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इराक पर एक नजर


क्षेत्रफल : विश्व का 59वां सबसे बड़ा देश। 4,38,317 वर्ग किलोमीटर
सीमा : 3650 किलोमीटर (ईरान 1458, जोर्डन 181, कुवैत 240, सऊदी अरब 814, सीरिया 605, तुर्की 352 किलोमीटर)
समुद्री सीमा : 58 किलोमीटर
प्रांत : 18
धर्म : इस्लाम : 97 प्रतिशत (60 से 67 प्रतिशत शिया, 33 से 40 प्रतिशत सुन्नी)
इस्लाम के प्रमुख धर्मस्थल : नजफ, करबला, बगदाद, समारा
ईसाई धर्म इराक में पहली शताब्दी ईस्वी में ही पहुंच गया था।

तेल की धार

इराक में दुनिया के तेल भंडारों का पांचवा हिस्सा है। करीब 150 अरब बैरल। वर्ष 2001 के बाद से तो इराक में इतनी हिंसा है कि उसके बाद के आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं। 2009 में तेल मंत्रालय ने कई देशी-विदेशी कंपनियों को तेल निकालने के ठेके दिए गए। संयुक्त उपक्रम में तेल निकालने की फीस करीब 1.40 डॉलर प्रति बैरल रखी गई। किरकुक और उसके आसपास के तेल भंडार पर कुर्दों ने कब्जा कर लिया है। वे इस इलाके को उतना ही पवित्र मानते हैं जितना यहूदी यरुशलम को। उन्होंने इसे अपना पुराना सपना पूरा होना बताया।

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