Wednesday, 28 May 2014

क्यों पढ़ा लिखा होना जरूरी है मानव संसाधन मंत्री का ?

केंद्र में बनी नई सरकार की मानव संसधान मंत्री स्मृति जूबिन ईरानी की शिक्षा और मंत्री पद को लेकर विवाद छिड़ गया है। कांग्रेस को गालियां देना शुरू हो गया है कि उसने ये बेमतलब का विवाद खड़ा किया है। असल में ये विवाद खड़ा किया है लेखिका मधु किश्वर ने। जानते हैं न उन्हें। चुनाव से बहुत पहले नरेंद्र मोदी को मीडिया में मोदी मोदी बनाने का श्रेय उन्हीं को जाता है। कांग्रेस प्रवक्ता ने केवल यह कहा कि उनकी शिक्षा जानने के लिए चुनाव आयोग में दाखिल उनकी अपनी एफिडेविट देख ली जाए।
एचआरडी या मानव संसाधन मंत्रालय देश का सबसे बड़ा और सबसे महत्वपूर्ण विभाग है। इसमें शिक्षा भी शामिल है और शिक्षा प्रणाली को क्या नया स्वरूप देना है वह भी शामिल है। देश के युवाओं को युग की जरूरतों के मुताबिक ढालने के लिए तैयार करना भी, सांस्कृतिक, शैक्षणिक, वैज्ञानिक जागरूकता बढ़ाना भी। शिक्षा आप समझते हैं..जैसी देंगे वैसे ही भावी पीढ़ियां बनेंगी। नए प्रधानमंत्री गुजरात में करीब 13 साल मुख्यमंत्री रहे हैं। वहां के शिक्षा का स्तर और पाठ्यपुस्तकों में तथ्यात्मक गलतियां सामने आती रही हैं।
खैर, वाजपेयी सरकार में एचआरडी मंत्री थे डा. मुरली मनोहर जोशी जो अच्छे खासे पढ़े लिखे हैं प्रोफेसर रहे हैं। उन्हें इस बार उनकी पार्टी ने किनारे कर दिया। क्योंकि उन्होंने स्कूल चलें हम और सर्वशिक्षा अभियान तो चलाया लेकिन स्कूल कालेजों के सिलेबस का भगवाकरण पूरा करने में नाकाम रहे। अब कोई भी ज्यादा पढ़ा लिखा व्यक्ति शिक्षा मंत्री बनेगा तो वो भारत के इतिहास और अतीत से ज्यादा खिलवाड़ नहीं कर सकेगा। 

अगर उसे प्राचीन भारत का इतिहास बताना है तो वही स्रोत रहेंगे उसे बताने के जो अब तक रहे हैं। वह अपनी मरजी से यह नहीं लिखवा सकता कि लंकापति रावण अज्ञानी था, अनपढ़ था उसने पूरी दुनिया को चौपट कर दिया था और इक्ष्वाकु वंश के राजा राम चंद्र ने अपनी पत्नी या जीवनसंगिनी का साथ जिंदगी भर नहीं छोड़ा। रामराज्य के बारे में मनगढ़ंत बातें भी वह सिलेबस में नहीं लिखवा सकता क्योंकि बहुत सी जानकारी वाल्मीकि रामायण में और अन्य प्राचीन ग्रंथों में मौजूद है, जिसे बदला नहीं जा सकता। 
श्रीकृष्ण की गाथा केवल रासलीला से नहीं उनकी राजनीतिक चतुरता से भी भरी पड़ी है, लेकिन तब यह तो बताना ही पड़ेगा कि कैसे एक इंच जमीन के लिए (या पांच गांवों के लिए या अपने हक के लिए) भाई भाई से लड़े थे, अर्जुन तो हथियार उठाने को तैयार नहीं थे, उन्हें कृष्ण ने कैसे मनाया, तब गीता सार या श्रीमदभगवतगीता को कैसे समझाएंगे।
 यह तो बताना पड़ेगा जब भारत-भूमि पर मुसलमान नहीं आए थे तब लोग लड़ते क्यों थे, राजा एक-दूसरे पर हमला कैसे और क्यों करते थे। वो किस धर्म के होते थे। क्या फिर शैव, शाक्त, वैष्णव आदि आदि की लड़ाई की परतें उधड़नी बंद हो जाएंगी।
क्या प्राचीन वर्ण व्यवस्था और उससे उपजी कुरीतियों को इतिहास के पन्नों से हटा देंगे, तब राजा राम मोहन राय और सती प्रथा का उल्लेख कैसे करेंगे, राणी सती मंदिर का जिक्र करेंगे तो सती प्रथा आज की 21वीं सदी से 22वीं सदी में जाती जनता को कैसे सही बताएंगे। मध्य कालीन भारतीय इतिहास का कोई जानकार यह तथ्य नहीं बदल सकता कि बाबर भारत क्यों आया था, उसने क्या किया, मुगल साम्राज्य का अस्तित्व किताबों से खत्म नहीं किया जा सकता क्यों उसके अवशेष देशभर में बिखरे पड़े हैं। अलाउद्दीन खिलजी की बाजार व्यवस्था, अकबर की जमीन नापतौल की व्यवस्था, कोस मीनार, सर्वधर्म समभाव, दीन ए इलाही को कैसे खत्म करेंगे। महाराणा प्रताप, महारानी लक्ष्मी बाई और उन्हीं के जैसे योद्धाओं की गाथा बताने के लिए यह तो बताना ही पड़ेगा कि उन्होंने संघर्ष किया किससे था। गोस्वामी तुलसीदास की रामचरित मानस लिखे जाते समय शासन किसका था।
आधुनिक काल में अंग्रेजों का भारत आना, भारतीय संस्कृति को बरबाद करना, सारा सोना लूट कर ले जाने वाला बताओगे तो सारे ज्योतिर्लिंग, कामाख्या पीठ, बद्री-केदार, कैसे बच गए, श्रीपद्मनाभमंदिर से निकले भारी भरकम सोने हीरे जवाहरात के बारे में क्या बताओगे। अंग्रेजों के राज में ये बच कैसे गए, कुतुब मीनार, ताज महल, लाल किला, प्राचीन महल, कैसे रह गए। फिर क्या बताओगे, माना पुष्पक विमान श्रीरामचंद्र के जमाने में था रावण के पास भी कुछ विमान थे जिनमें से एक में उसने सीतामाता का अपहरण कर लिया था, लेकिन यह तो बताना पड़ेगा कि देश का सबसे लंबा सड़क मार्ग शेरशाह सूरी ने बनवाया थे, रेलवे लाइनें भारत में अंग्रेजों ने बनवाई थीं।
 आधुनिक भारत में क्या बताएंगे..अंग्रेजों से लड़कर आजादी किसने हासिल की। शहीद भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, जलियांवाला बाग, तात्या टोपे, रानी लक्ष्मीबाई, मंगल पांडे के साथ आखिरी मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर का नाम भी लेना पड़ेगा। गांधी बाबा को दक्षिण अफ्रीका में ट्रेन से फेंक दिया गया था उसका बदला उन्होंने अंग्रेजों से लिया यह कह कर टाल नहीं सकेंगे। यह बताना पड़ेगा कि उस अधनंगे रहने वाले डेढ़ पसली के से आदमी ने छप्पन इंच का सीना न होते हुए भी अंग्रेजों की नाक में कैसे दम कर रखा था। वीर सावरकर की गाथा और उनकी किताबों के आदर्श बताते समय यह भी बताना पड़ेगा कि वे फ्रांस के बंदरगाह के पास जहाज से कूदे क्यों थे। और भी बहुत सी बातें हैं। जैसे 1925 में आरएसएस बनने के बाद से उसके स्वयंसेवक कर क्या रहे थे। आजादी की लड़ाई में उनका अपना क्या योगदान था। जो लोग उस समय पुलिस में थे क्या उन्होंने आजादी के लिए लड़ रहे आंदोलनकारियों का साथ दिया था या अंग्रेजों के आदेश पर उन्होंनें आंदोलनकारियों पर लाठी-गोली चलाई थी। भड़कने की जरूरत नहीं सब किसी न किसी कोर्ट के रिकार्ड, किसी न किसी की डायरी में लिखा है। उस समय के गजट में लिखा है। सरकारी, निजी किताबों, डायरियों में दर्ज है। नई किताबें लिखवाने से उस अतीत को नहीं भुलाया जा सकता।
आजादी की लड़ाई के इतिहास में क्या कांग्रेस के नेताओं का योगदान भूल जाओगे, माना जवाहर नेहरू, या अन्य कांग्रेसियों को भूल जाओगे लेकिन जनसंघ कैसे जन्मा, जनसंघ या भाजपा के पुराने नेताओं ने अपनी राजनीति कैसे शुरू की, यह तो बताना पड़ेगा। भाखड़ा नंगल बांध से लेकर रावतभाटा परमाणु रिएक्टर, पहला परमाणु विस्फोट, भारत-पाक युद्ध, बंटवारे में तत्कालीन भाजपा नेताओं (तब भाजपा नहीं थी, लेकिन उसे बाद में बनाने वाले नेता और आरएसएस तो थे) का क्या योगदान था। यह तो बताना पड़ेगा। आज हर आदमी की जेब में मोबाइल फोन और लैपटाप या कम्प्यूटर कैसे पहुंचा, 2जी का घोटाला बताओगे तो यह बताना पड़ेगा कि फोन की दरें इतनी सस्ती कैसे रहीं।


हां, आर्यभट्ट, वराहमिहिर जैसे विद्वानों की जानकारी व्यापक स्तर फैलाई जा सकती है जो जरूरी भी है। यह बताया जा सकता है कि टेस्ट ट्यूब बेबी का प्रचलन घड़ों में संतान के जन्म के रूप में था, उस समय की अत्याधुनिक सर्जरी के तहत गणेश के सिर पर हाथी का सिर लगाया जाना था। यह अलग बात है कि आधुनिक भारत में एक वैज्ञानिक ने सुअर का दिल मनुष्य के शरीर में लगाया तो उसे प्रोत्साहित करने के बजाय उसकी इतनी छीछालेदर की गई कि छि सुअर का दिल..उसे आत्महत्या करनी पड़ी।
लेकिन भाजपा को ज्यादा पढ़े-लिखे शिक्षा मंत्री की शायद जरूरत नहीं है। क्योंकि वह हर कदम पर सवाल उठा सकता है। सवाल खड़े करने वालों के साथ क्या हो रहा है, यह नजर आ रहा है। प्रेस कांफ्रेंसों में भी। भाजपा के शिक्षामंत्री की शैक्षणिक योग्यता पर सवाल उठाने वालों को जवाब मिल रहा है..कांग्रेस की चाल है..सोनिया की शिक्षा देखो, बताओ राहुल कहां तक पढ़े हैं। मानो सवाल उठाने वाले सब कांग्रेसी ही हैं। अगर हैं तो कांग्रेस के शासन के प्रधानमंत्री और एचआरडी मंत्री की शैक्षणिक योग्यता देख लो। जवाब है उन्होंने कौन सा तीन मार लिया। जीडीपी, ग्रोथ रेट पर चर्चा से पहले उसी अवधि में आपको देखना पड़ेगा कि दुनिया के सबसे ज्यादा पैसे वाले देश अमेरिका में आया सीक्वेस्टर संकट क्या था। कैसे दुनिया की कार सिटी कहलाने वाले शहर को दिवालिया घोषित होने के लिए कोर्ट का सहारा लेना पड़ा। क्यों यूरोप और अमेरिकी देशों में गंभीर आर्थिक संकट आया।
लेकिन इस सबके लिए पढ़ा लिखा होना भी जरूरी है। भावनाएं भड़काकर या दूसरों की लाई तकनीक का सहारा लेकर कम जानकार लोगों में महान बनना आसान है लेकिन जानकार लोगों (मोटी कमाई के लालच में पड़े उद्योगपतियों नहीं) को मूर्ख कब तक बना पाओगे। मकसद केवल चुनाव जीतना नहीं, उसके बाद काम करना भी है।

Saturday, 24 May 2014

आओ कुछ भूलने की कोशिश करें


दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में जनता ने अपने मताधिकार का प्रयोग कर सत्ता बदल दी है। इसमें जितना योगदान प्रचारतंत्र का रहा उतना इससे पहले के किसी चुनाव में नहीं हुआ। प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार जो अब प्रधानमंत्री पद की शपथ ले रहे हैं उन्होंने अपनी हर चुनावी रैली में सत्तारूढ़ दल और उसके नेताओं पर कटाक्ष किए व्यंग्यबाण छोड़े। कहा 60 साल तक उस सरकार ने कोई काम नहीं किया। यह अलग बात है कि जिस इंटरनेट, 3डी तकनीक से उन्होंने प्रचार किया वह वही सरकार लाई थी जिसे खूब निकम्मा, भ्रष्ट, लाचार और कामचोर बताया गया था। जब पूछा जाता कि इस पार्टी के पास ऐसे शाही प्रचार के लिए पैसा कहां से आया तो कहा जाता आपको किसने रोका है आपमें दम है तो आप भी खर्च करो। इस पार्टी के भ्रष्ट लोगों पर सवाल उठाना मानो गवाह था। एक पार्टी के नेता तो इस गुनाह के कारण जेल में हैं। किसी अपराध में नहीं बल्कि तकनीकी कारणों से।
नई सरकार बनने से पहले ही हमें बहुत सी चीजें भूल जाने को कहा गया है। जो साहेब प्रधानमंत्री बन रहे हैं उन्होंने चुनावी रैलियों में सत्तारूढ़ दल की सरकार को फटकारते हुए कहा था कि वह पड़ोस की उस सरकार से बात कर रही है जो हमारे सैनिकों के सिर काट कर ले गया, पाकिस्तान के नेताओं को बिरयानी खिला रही है, जब तक पाकिस्तान हमारे शहीदों के कटे सिर नहीं लौटा देता, दाऊद को हमें नहीं सौंप देता, हाफिज सईद को हमें नहीं सौंप देता उससे कोई बात नहीं नहीं होनी चाहिए..फिर वे जनता से पूछते क्यों भाइयों सही है कि नहीं। भीड़ से आवाज आती सही है..अब जब वे जीत गए उन्होंने सबसे पहला न्योता अपने उसी पड़ोसी कट्टर दुश्मन बताए गए देश के नेता को निमंत्रण दिया है। अब उनकी पुरानी बातों की याद दिलाने पर वे फटकार देते हैं। उनका कहना है कि उन्हीं की पुरानी बातों को उठाने वाले दोनों देशों के संबंध सुधरने नहीं देना चाहते। वही प्रायोजित भीड़ जो कल पाकिस्तान को गालियां दे रही थी, आज वहां के प्रधानमंत्री को बुलाए जाने पर अपने नेता की तारीफ कर रही है। कहती है यह सार्थक पहल है। वोटर हक्का बक्का है। न शहीदों के सिर लौटे, न उस देश ने उस कृत्य के लिए माफी मांगी, न वहां से आतंकवाद बंद हुआ, न आतंकी शिविर खत्म हुए, न उसने कश्मीर पर अपना रवैया बदला। फिर हुआ क्या..ये सत्ता में आने से पहले ही इतनी जल्दी बदल कैसे गए। इनके साथ सुर में सुर मिला कर उठाए गए सवाल अब उठाना देशद्रोह भी माना जा सकता है। फिर पुरानी दोस्ती है, कारोबारी। जनता होती कौन है सवाल उठाने वाली। उसका इस्तेमाल करना था सो भावनाएं भड़का कर हो गया। अब हम अच्छे पड़ोसी की तरह रहना चाहते हैं, व्यापार श्यापार करना चाहते हैं तो इसमें बुरा क्या है। और सैनिक तो नौकरी कर रहे हैं। उन्हें अच्छी तरह पता है कि वे सेना में भर्ती हुए हैं तो कभी न कभी तो जान जाएगी ही। सरकार उन्हें वेतन-भत्ते देती है। दुश्मन की गोली से मारे जाने पर शहीद का दर्जा देती है। खुद नए प्रधानमंत्री ने हिमाचल की एक रैली में कहा था शहीद अपने परिवार का नहीं होता वो पूरे देश का होता है। उस चुनाव क्षेत्र से एक शहीद की मां चुनाव लड़ रही थी, उसके बेटे के नाम पर ही उसका विरोध किया गया। मां को अपमानित करते हुए कहा गया उनका बेटा था तो क्या हुआ शहीद तो देश का था। और उस शहीद की मां को हरवा दिया गया। चुनाव में। न शहीदों के सिर लौटे, न सम्मान। भूल जाओ। क्योंकि किसी ने पहले ही कह दिया है शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले यही बाकी उनका निशां होगा। लोगों को याद होगा सरबजीत सिंह जिसे मंजीत सिंह बता कर लाहौर बम कांड के लिए फांसी की सजा सुनाई गई थी और पाकिस्तान की जेल में पीट पीट कर मार दिया गया था। उसकी बहन के साथ मिलकर इस नई सत्तारूढ़ पार्टी के नेताओं ने सरबजीत को छुड़वाने की कोशिशें की थी। नाकाम रहे वो अलग बात है। अब उसकी बहन भी पूछ रही है कि क्या नवाज शरीफ हो गए हैं। भूल जाओ।
पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने भी चुनावी रैलियों में भारत का खूब जिक्र किया था, लेकिन वहां उन्होंने कही था कि वो भारत से दोस्ती कायम करेंगे। रिश्ते सुधारेंगे। उन्हें उस बात पर जनता ने समर्थन दिया था। हमारे यहां समर्थन लिया गया है पाकिस्तान को सबक सिखाने के लिए।
 वाजपेयी काल में नवाज ही शरीफ थे। वाजपेयीजी ने दोस्ती की पहल की थी, उधर से करगिल पर हमला हो गया था। वहां तख्ता पलटने के फौजी शासक मुशर्रफ को बातचीत के लिए आगरा बुलाया था, बात बनी नहीं वो बिगड़ कर लौट गए। पता नहीं क्या हुआ इस बीच कोई अधिकृत जानकारी नहीं। लेकिन कांग्रेस के समय पाकिस्तान के प्रधानमंत्री जियारत करने अजमेर आए और शिष्टाचार विदेश मंत्रालय़ द्वारा उन्हें जयपुर में एक समय खाना खिलाया गया तो ये पार्टी कितनी बुरी तरह से कांग्रेस पर टूटी थी यह अखबारों में छपा और टीवी पर आया इसलिए उसे भूलना थोड़ा मुश्किल होगा।

पाकिस्तान के एक प्रधानमंत्री थे जुल्फकार अली भुट्टो, वहीं जिन्हें भारत बुला कर इंदिरा गाधी ने शिमला समझौते पर दस्तखत करवाए थे। भारत में कांग्रेस की आलोचना होती है कि उसने 90,000 पाकिस्तानी सैनिकों को यूंही छोड़ दिया। उन भुट्टो को पाकिस्तान में फांसी की सजा सुनाई गई। दुनियाभर के राजनेताओं ने उसका विरोध किया। इंदिरा गांधी ने भी विरोध किया, लेकिन उस समय हमारे यहां मोरारजी भाई प्रधानमंत्री थे (इंदिरा गांधी विपक्ष की नेता) उन्होंने विरोध करने या भुट्टो को रिहा करने की अपील करने से साफ मना कर दिया।
भुट्टो को फांसी पर लटका दिया गया और मोरारजी भाई को 1990 में पाकिस्तान का सबसे बड़ा सिविलियन अवार्ड निशान-ए-पाकिस्तान मिला। उन्हीं भुट्टो ने शिमला समझौता करने के बाद पाकिस्तान पहुंच कर कहा था हम भारत से एक हजार साल तक लड़ेंगे। जब वे शिमला आए थे तो उनके साथ उनकी प्यारी सी किशोरी बेटी बेनजीर भी थी। उस समय अटल बिहारी वाजपेयी ने कविता लिखी थी मालरोड पर बेनजीर। यही बेनजीर बाद में पाकिस्तान की पहली महिला प्रधानमंत्री बनी, विस्फोट में मारी गई। उनके पति आसिफ अली जरदारी राष्ट्रपति बने जो मिस्टर 10 परसेंट कहलाते थे।
पड़ोसियों से संबंध सुधारे जाने चाहिए सब मानते हैं। आखिर चारों तरफ से शांति होगी तभी तो देश प्रगति करेगा। राजीव गांधी के समय पड़ोसी देशों का एक संगठन बना कर सार्क नाम दिया गया था। वह इसी उद्देश्य के लिए था। प्रयास बहुत पहले से हो रहे थे यह अलग बात है। इस संगठन में पाकिस्तान भी है बांग्लादेश भी। श्रीलंका भी है और मालदीव भी। अफगानिस्तान, नेपाल भी है और भूटान भी। उसके आगे म्यांमार या बर्मा इसमें नहीं है।

श्रीलंका के राष्ट्रपति महिंदा राजपक्सा को भी आमंत्रित किया गया है। उन्हें उत्तरी श्रीलंका में भारतवंशी तमिलों के मानवाधिकारों उल्लंघन को दोषी अंतरराष्ट्रीय तौर पर माना गया है। उत्तरी श्रीलंका को आजाद तमिल देश बनाने की मांग करने वाले लिट्टे के सफाए के नाम पर उनके नेतृत्व में श्रीलंका की सेना ने वहां रहने वाले आम तमिल लोगों पर भारी अत्याचार किए। ठीक वैसे ही जैसे पाकिस्तान के सैनिकों ने बांग्लादेश में वहां के आजादी के संग्राम के समय किए थे। लिट्टे के आतंकियों ने भले ही पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या कर दी हो, लेकिन उसके नेता प्रभाकरण के समर्थक वाइको की पार्टी आज केंद्र में सत्तारूढ़ होने वाली एनडीए में हैं। तमिलनाडु सरकार (मुख्यमंत्री जय ललिता) ने राजपक्सा को भारत बुलाए जाने का सख्त विरोध किया है। जयललिता की पार्टी ने तमिलनाडु की 39 में से 37 सीटें जीती हैं। यानी वहां राज्य में उनकी सरकार है और लोकसभा में राज्य से सबसे ज्यादा सीटें। फिर भी उनकी बात नहीं सुनी जा रही तो कैसा लोकतंत्र। लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए भाजपा ने कांग्रेस की यह कह कर कड़ी आलोचना की थी कि उसने श्रीलंका की राजपक्सा सरकार के खिलाफ अंतरराष्ट्रीय मंच पर आवाज बुलंद नहीं की थी। खूब बुरा-भला कहा था। दिमाग चकरा गया है। क्या भूलूं क्या याद करूं। कोई ये न कहे कि लिट्टे के सफाए और तमिलों पर अत्याचार में सेना का हाथ था, क्योंकि श्रीलंका के राष्ट्रपति चुनाव में तत्कालीन सेना अध्यक्ष सरथ फोंसेका भी खड़े हुए थे। इन्हीं राजपक्सा ने कहा था कि सेना ने तो सिर्फ राष्ट्रपति (तब वे खुद ही राष्ट्रपति थे) के आदेश का पालन किया है। फोंसेका चुनाव हार गए थे तो उन्हें कैद कर लिया गया। आरोप था तमिलों पर अत्याचार का। कितना आसान होता है भूल जाना।


बांग्लादेश तो सबको याद होगा। 1971 के भारत-पाक युद्ध में कांग्रेसी प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के मजबूत इरादों से हमारी सेना के जवानों ने पाकिस्तान के दो टुकड़े करवाए थे। वरना वह दोनों तरफ से नाक में दम किए था। उसी पाकिस्तान का पूर्वी हिस्सा है बांग्लादेश। आज के युवाओं को बताना जरूरी है क्योंकि वे केवल यह जानते हैं कि बांग्लादेश से घुसपैठिए आते हैं। बांग्लादेश में बंगाली मुसलमानों की संख्या ज्यादा है और बंगभंग के दौरान अंग्रेजों ने उस इलाके को बंगाल से अलग किया था। आज पश्चिम बंगाल भारत में है लेकिन पूर्वी बंगाल कहीं नहीं है वह अब बांग्लादेश कहलाता है। यानी बंगाल और बांग्लादेश का गर्भनाल का रिश्ता है। आपको न पता हो तो यह जान लें कि भारत और बांग्लादेश दोनों के राष्ट्रगान एक ही व्यक्ति रबींद्र नाथ टैगोर के लिखे हुए हैं। जन गण मन भी और आमार सानार बांग्ला, आमी तोमाए भालोबाशी भी। हमारे नए प्रधानमंत्री जब प्रधानमंत्री नहीं बने थे उन्होंने चुनावी रैलियों में बांग्लादेश से शरण लेने आए सभी हिंदुओं को अपना और मुसलमानों को घुसपैठिया बताया था। कहा था सत्ता में आए तो भारत में रहने वाले सभी बांग्लादेशी घुसपैठियों को खदेड़ दिया जाएगा। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने उसका कड़ा विरोध किया था। चुनाव में उनकी तृणमूल कांग्रेस ने राज्य की 42 में से 34 सीटें जीती हैं और भाजपा ने दो।  यहां विरोध बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना का नहीं हो रहा। वे तो बंगबंधु शेख मुजीब की बेटी हैं जिन्हें इंदिरा गांधी ने उस समय पाकिस्तान की जेल से छुड़वा कर बांग्लादेश की सत्ता सौंपी थी। शेख मुजीब पहले विदेशी नेता हैं जिनका तेजस्वी भाषण मैंने सुना था। जेल से छूट कर आने के बाद वे कलकत्ता में बोल रहे थे। समझ में कुछ नहीं आया था क्योंकि वो बांग्ला बोल रहे थे और मैं छोटा था बांग्ला आती नहीं थी। लेकिन वो भाषा के बंधन से परे वाकई जोश भरने वाला भाषण था। तो बांग्लादेश की प्रधानमंत्री को निमंत्रण में विरोध क्यों। जिस देश के लोगों को, उनकी मजबूरी को आपने सरे आम भला-बुरा कहा हो क्या वहां के नेता से आप आंख मिला पाएंगे। हां अगर आपमें शर्म नाम की कोई चीज न हो तो।


अलबत्ता, मालदीव सुंदर द्वीपों का समूह है। वहां के राष्ट्रपति अब्दुल्ला यामीन अब्दुल गयूम हैं। उनके पिताजी मौमून अब्दुल गयूम 1978 से 2008 तक देश के राष्ट्रपति रहे हैं। वहां 2012 में राष्ट्रपति मुहम्मद नशीद को अप्रत्याशित तरीके से इस्तीफा देना पड़ा था, वे भाग कर भारतीय दूतावास में आ गए थे कुछ दिन बरामदे में ही बैठे रहे। बाद में उन्हें जाना पड़ा और गिरफ्तार कर लिए गए। उससे पहले 1988 में कुछ तमिल अलगाववादियों के सहयोग से अब्दुल्ला लुतुफी ने मालदीव में गयूम का तख्ता पलट दिया था। तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने आपरेशन कैक्टस के तहत सेना की टुकड़ी भेज कर 3 नवंबर 1988 को मालदीव को तख्ता पलट करने वालों से मुक्त करवाया।
नेपाल और भूटान से भारत को कभी कोई समस्या नहीं रही। दोनों देश कभी कभी चीन के प्रभाव में आ जाते हैं। नेपाल कभी दुनिया में अकेला हिंदूराष्ट्र था। अब धर्मनिरपेक्ष है। काठमांडु का पशुपतिनाथ मंदिर वाकई देखने लायक है। वहां लिखा था गैर हिंदुओं का प्रवेश वर्जित है, लेकिन इसका शायद सख्ती से पालन नहीं होता क्योंकि मैं वहां कुछ ईसाइयों के साथ गया था और किसी ने रोका नहीं।
अंत में मुझे यह कहने में कोई लाग लपेट नहीं कि पड़ोसियों से संबंध सुधरने चाहिए। सब चाहते हैं शांति रहे। मेरा कहना सिर्फ ये है कि लोगों की भावनाओं से खिलवाड़ बंद होना चाहिए। हो सकता है झूठ बोलकर आप सत्ता पा जाएं, झूठ बोलकर हमेशा सत्ता में बने रहें, लेकिन कोई परम शक्ति है जो ये सब देखती होगी। उस दिन आप अपने आपको क्या जवाब दोगे। इसलिए क्यों न सत्य की राह पर चल कर देश और दुनिया को आगे बढ़ाया जाए। डंके की चोट पर सच बोला जाए। सच को सच माना जाए।

Friday, 23 May 2014

पर उपदेश कुशल बहुतेरे : कांग्रेस को सीख

पर उपदेश कुशल बहुतेरे  : कांग्रेस को सीख










राकेश माथुर
कांग्रेस को इस बार लोकसभा में करारी शिकस्त खानी पड़ी है। परिणाम आने के पहले और बाद में जिसे देखो कांग्रेस को उपदेश दे रहा था। अभी भी भाजपा सहित लगभग सभी दलों के नेता और कार्यकर्ता कांग्रेस को न केवल भला-बुरा कह रहे हैं बल्कि यह भी बता रहे हैं ऐसा करना चाहिए था, वैसा करना चाहिए था। कांग्रेस के कुछ नेता भी पार्टी नेतृत्व पर अपनी हार का ठीकरा फोड़ रहे हैं। मेरा नजरिया इस पर अलग है।

मीडिया को चटखारे वाली खबरें चाहिएं। कांग्रेस के नेता चाहे वो मिलिंद देवड़ा हों, दिग्विजय सिंह हों या बेनी प्रसाद वर्मा ऐसी खबरें देते रहे हैं। जिस तरह से मीडिया ने राहुल गांधी, मुलायम सिंह, अखिलेश यादव का मजाक उड़ाया है उसी तरह का मजाक अगर मीडिया दूसरी पार्टी के कुछ खास नेताओं का उतारता तो शायद उसे समझ में आ जाता कि मजाक और गंभीरता में क्या फर्क होता है। देश की सरकार बनाने और युवाओं को गुमराह कर सत्ता पाने में क्या अंतर होता है। खैर, हम लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की हार की बात कर रहे थे। इस चुनाव में 50 से ज्यादा नेता ऐसे थे जो कांग्रेस का टिकट लेने के बाद या उसके ऐन पहले भाजपा में शामिल हो गए। ज्यादातर जीत गए। उन्होंने क्यों और कैसे दल बदला तथा वे कैसे जीते इस पर कांग्रेस नेतृत्व को सोचना होगा। कांग्रेस को यह भी सोचना होगा कि उसके नेता खुले आम पार्टी नेतृत्व को ठीक वैसे ही गालियां या बुरा भला क्यों कहने लगे जैसे विपक्षी दल कहते हैं। क्या ऐसे लोगों से पार्टी छोड़ देने को कहा जाए या शांत रह कर पार्टी फोरम में चर्चा करने को कहा जाए। ऐसे नेताओं से पूछा जाना चाहिए कि उनकी जमीनी पकड़ कितनी थी, उन्होंने खुद जीतने के लिए क्या कोशिशें कीं। क्या वे केवल आलाकमान के भरोसे बैठे थे। क्या उन्हें किसी ने कहा था कि वे जीतने की कोशिश न करें। क्या उन्होंने यह देखने की कोशिश की कि विपक्षी दल चुनाव जीतने के लिए कौन कौन से पेंतरे अपना रहा है। क्या उन्होंने हर बूथ पर अपने लोग तैनात किए। अगर किए तो क्या वे विश्वासयोग्य थे। पहले उन्हें खुद अपनी समीक्षा करनी चाहिए। आखिर इस बुरी हालत में भी 44 लोग तो जीत कर आए ही हैं। वे कैसे जीते।
सबसे जरूरी बात यह है कि नीयत चाहे कितनी भी अच्छी हो, मीडिया उसका प्रचार किस तरह कर रहा है इस पर नजर रखना और दुष्प्रचार रोकने के तरीके अपनाना बहुत जरूरी है। मीडिया का रुझान तो इस चुनाव में साफ नजर आया। कुछ टीवी चैनलों ने चर्चा में कांग्रेस के प्रतिनिधियों को बुलाया लेकिन उनके कुछ बोलना शुरू करने से पहले ही एंकरों ने उन्हें जलील करना शुरू कर दिया। कांग्रेस के वे प्रतिनिधि खामोश रह गए, उन्हें बोलने का मौका नहीं दिया गया और कहा गया कि उनके पास कोई जवाब ही नहीं है वो कहेंगे क्या। इसके साथ ही पैनल में बैठे बाकी सभी लोग कांग्रेस का मजाक उड़ाने लगते। ऐसा क्यों हुआ, इस पर विचार करना जरूरी है वर्ना हर बार यही होगा। इसे रोकने के लिए सख्त कदम उठाने होंगे। ऐसे एंकरों को बुरी तरह झाड़ने में सक्षम नेताओं को ही टीवी की बहस में भेजा जाना चाहिए।
चुनाव और प्रचार के दौरान ज्यादातर अखबारों और टीवी चैनलों में एक लाइन जरूर थी, कांग्रेस बुरी तरह हार रही है, इस बार कांग्रेस किसी कीमत पर नहीं जीतेगी। ऐसे लेखकों और मीडिया पर कांग्रेस को नजर रखनी होगी। परिणाम आने से पहले कोई कैसे कह सकता है कौन जीतेगा कौन हारेगा। असल में यह भाजपा के चुनाव प्रचार का हिस्सा था। वे लेखक भाजपा या राष्ट्रीय स्वयं सेवक की विचारधारा के थे या उन्हें ऐसा लिख कर माहौल बनाने के पैसे दिए गए थे। कुछ भी हो अपने पक्ष में चुनावी माहौल बनाने के लिए सभी पार्टियां ऐसा करती हैं, यह गलत भी नहीं है लेकिन इस बार ऐसा केवल एक पार्टी के लिए हुआ। दूसरी सभी पार्टियों को खराब बताया गया। एक माहौल बनाया गया। खैर,  इस बार तो जो हुआ सो हुआ लेकिन अगली बार इसकी काट खोजना बहुत जरूरी है। कहीं ऐसा तो नहीं जिस पर चुनाव प्रचार के लिए बहुत ज्यादा भरोसा किया था वही धोखा दे गया।
जीतने वाली पार्टी की चुनावी रणनीति को भी समझना जरूरी है। उसके पास इस बार एक व्यवस्थित रणनीति थी यह तो मानना ही पड़ेगा। इसमें झूठ, दबंगता, शारीरिक हावभाव, डंके की चोट पर गलत बात कहना भी शामिल था तो एक पूरी फौज टेक्नोक्रेट्स, भाषण लेखकों और आईटी एक्सपर्ट्स की भी थी। माना कांग्रेस के खून में झूठ, दबंगता और डंके की चोट पर गलत बात कहना नहीं है, लेकिन आईटी एक्सपर्ट्स और टेक्नोक्रेट्स की उतनी बड़ी नहीं तो छोटी फौज तो कांग्रेस के पास भी थी। अंतर केवल इतना था कि उसमें शायद राजनीति और विपक्ष की चाल समझने वाले नहीं थे।

कांग्रेस और अन्य सभी दलों को इस बार किसी भी चुनाव से पहले ईवीएम पर खास नजर रखनी होगी। कई जगहों से ऐसी खबरें आई कि कोई भी बटन दबाओ, एक खास पार्टी को ही सारे वोट जाएंगे। कुछ जगहों पर यह सही पाया गया। कार्रवाई केवल इतनी हुई कि ईवीएम बदल दी गई। लेकिन उसमें भी वही था। यानी इस किस्म के आईटी एक्सपर्ट उस पार्टी के पास थे जो ईवीएम का परिणाम बदलने में सक्षम थे। बीबीसी ने इस पर एक रिपोर्ट भी प्रसारित की थी। मध्य प्रदेश विधानसभा चुनावों में भी ऐसा हुआ था। इसलिए सतर्क रहना बहुत जरूरी था, लेकिन कांग्रेस इस जगह पर बुरी तरह से चूक गई।  इसे आधुनिक तरीके से बूथ कब्जा करना कहा जाता है। भाजपा ने वन बूथ 10 यूथ की रणनीति तैयार की थी। उसकी मदद कर रहे राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने भी हर बूथ पर अपना एक अलग व्यक्ति तैनात करने की योजना बनाई थी। इसका मतलब उन्होंने बताया कि बूथ पर ज्यादा से ज्यादा वोटर लाने के लिए उन्होंने ऐसा किया। लेकिन मीडिया में दूसरी तरह की रिपोर्टें भी आई। इस पर कांग्रेस ने कोई रणनीति नहीं बनाई। अगर बनाई भी तो उस पर अमल होता नहीं दिखा। यानी हो सकता है कुछ आस्तीन के छिपे सांप हों या कुछ ने केवल कह दिया हो कि हां हमने कर दिया इंतजाम और कुछ किया ही न हो। तो अगर ऐसी जिम्मेदारी किसी को दी गई हो तो उससे जवाब तलब किया जाए।

पार्टी में राष्ट्रीय स्तर से लेकर प्रदेश, जिला, पंचायत, तहसील, गांव, मुहल्ला, वार्ड  स्तर तक पदाधिकारियों की इतनी लंबी चौड़ी फौज आखिर कर क्या रही थी। क्या वह सिर्फ राहुल गांधी या सोनिया गांधी से किसी करिश्मे की उम्मीद में बैठी थी। आखिर पदाधिकारी होते क्यों हैं। क्या केवल पद का लाभ लेने के लिए। क्या पार्टी के प्रति उनकी कोई जिम्मेदारी नहीं होती। आखिर गुटबाजी क्या करेगी जब कोई भी नहीं जीत पाएगा। एक दूसरे को हराने में लगे नेता पार्टी को बिल्कुल खत्म कर दें उससे पहले उन्हें पार्टी से बाहर कर दिया जाए यही बेहतर होगा। एक कारपोरेट कंपनी की तरह अब हर पदाधिकारी से हर महीने पूछा जाना चाहिए कि उसने अपने इलाके में पार्टी के हित में क्या काम किया। उसके दावे की जांच भी होनी चाहिए और समीक्षा भी। जांच और समीक्षा पुराने अनुभवी लोगों से करवाई जानी चाहिए न कि नए पहली बार राजनीति में आए युवाओं से।
किसी जमाने में कांग्रेस और युवा कांग्रेस हर बड़े नेता की जयंती या पुण्यतिथि पर रक्तदान शिविर लगाती थी, गरीबों के लिए कपड़े, कंबल आदि एकत्र कर उन्हें बंटवाती थी, उनका बाकायदा प्रचार भी होता था। असल में काम होने से लोगों पर उसका असर भी पड़ता था। अब एयरकंडीशंड में बैठने वाले नेटसेवी लोगों की फौज बिना एसी गाड़ी के सड़क पर नहीं निकल सकती। तो असल काम करेगा कौन। रात में झोपड़ पट्टी में चुपचाप कांग्रेस के झंडे फहरा देने से वोट नहीं मिलते। उन इलाकों में काम भी करना पड़ता है और उसका प्रचार भी। खेत में मजदूर के साथ रोटी खाने वाली फोटो प्रसारित करने से पहले यह भी देख लें कि ठेठ गांव के खेत में बोनचाइना की प्लेट कहां से आएगी। ऐसी ही एक तस्वीर का पिछले दिनों सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर खूब मजाक उड़ा था।
अब भी समय है। किसी का लिहाज करने से या अरे छोड़ो यार ऐसा हम नहीं करते..कहने से पहले पार्टी के कुछ उन लोगों की जीवनियां देख ली जाएं जो बहुत ऊपर तक चढ़े थे। जिन राज्यों में दूसरे दलों की सरकारें हैं वहीं के घपले घोटाले जोरों से उठाए जाएं। मध्य़ प्रदेश और छत्तीसगढ़ में ऐसे मामलों की भरमार है लेकिन कांग्रेस के लोग या तो भाजपा सरकार से लाभ उठाने के कारण खामोश हैं या जोर-शोर से मामले उठाने के लिए उनके पास युवाओं की फौज नहीं है। युवाओं की सेना को संगठित करने के लिए जमीनी स्तर पर सबको मिलकर कोशिश करनी होगी।